Monday 26 October 2015

दिल्ली कविता और मै

साहित्य और साहित्यकारों का दर्द हमेशा से यह रहा है की उसका परिवार उन लोगो तक सिमित है जो कही ना कही साहित्य लिखने से जुड़े है।  समकालीन कवियों की रचनाए समाज से कम जुड़ पा रही  है , लयबद्ध  कविता और छंदो से कविता की बढ़ती दुरी कविता का सौंदर्य कही ना कही कम कर रही है।  कवि  गोष्ठी और  कवि सम्मलेन की रचनाओ में  फर्क करना मुश्किल हो रहा है । लोग लिखने पे ज्यादा जोर दे रहे है ,पढने पे कम।  साहित्य में भी फैशन आ गया है , मार्केटिंग है।  ये अभी विवाद का विषय है की क्या इस दिखावे से कविता की आत्मा पे कोई असर पडेगा या ये एक मात्र तरिका है नवोदित कवियों का उस चार दिवारी को तोड़ने का जिसमे तथाकथित कवि अंगद पांव जमाए बैठे है।   बरहाल दिल्ली में भी मिला जुला अनुभव रहा पिछले एक महीने में , बेंगलुरु में निश्चित तौर पे काफी काम हो रहा है साहित्य पे।  आयोजको से ये अनुरोध है की वो नवोदित लेखको और कवियों को गद्य पढने पे जोर दे।  मै शुक्रगुजार हुं  दिल्ली में कम से कम मेरे लिए सीखने और समझने के लिए काफी रास्ते खुले है 


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