Monday 25 January 2016

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाए

निराश नहीं है , दुखी अवश्य है। गणतंत्र में मेरी आवाज तब तक सुरक्षित नहीं है जब तक वो किसी एक विचारधारा के सुर में सुर ना मिलाती  हो। भीड़ चाहिए हर वाक्य के समर्थन में , किताबे जला दी जाएंगी , फिल्मो का हिंसक विरोध होगा , बयानबाजी पे बयानबाजी लेकिन मूल समस्या पे कोई ठोस कदम नहीं।  मेरे खाने - पीने और कपडे पहनने के ढंग से लोग तय करेंगे की मै कितना बड़ा देशभक्त हुं। गणतंत्र दिवस की शुभकामनाए , लेकिन ना जाने क्युं आज सुबह से ही धूमिल की कुछ पंक्तिया बार - बार ज़ेहन में आ रही है 

क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

Friday 15 January 2016

हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं - जॉन एलिया

हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|

रास्ते कारवाँ के साथ रहे,
मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं|

अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|

इन को आँधि में ही बिखरना था,
बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं|

उस गली ने ये सुन के सब्र किया, 
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं|

हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,
हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं|

जॉन एलिया

  

Wednesday 13 January 2016

खामोशी कह रही है कान में क्या - जॉन एलिया

खामोशी कह रही है कान में क्या 
आ रही हो मेरे गुमान में क्या 

अब मुझे कोई टोकता भी नहीं 
यही होता है खानदान में क्या 

बोलते क्यों नहीं मेरे हक़ में 
आबले पड़ गए जबान में क्या 

मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या 
वो मिले तो ये पूछना है मुझे 
अब भी हुँ मई तेरी अमान में क्या 
शाम ही से दूकान-ए-दीद है बंद 
नहीं नुक्सान तक दूकान में क्या 

यूं जो तकता है आसमां को तू
कोई रहता है आसमान में क्या  

ये मुझे चैन क्यों नहीं पडता 
एक ही शख्स था जहां में क्या 

- जॉन एलिया 

अखलाक ना बरतेंगे मुदारा न करेंगे - जॉन एलिया

अखलाक ना बरतेंगे मुदारा न करेंगे 
अब हम किसी शख्स की परवाह ना करेंगे 

कुछ लोग कई लफ़्ज गलत बोल रहे है 
इस्लाह मगर हम भी अब इस्लाह ना करेंगे 

कमगोई के एक वस्फ -ए- हिमाक़त है बहर तो 
कमगोई को अपनाएंगे चहका ना करेंगे 

अब सहल पसंदी को बनाएंगे वतीरा 
ता देर किसी बाब में सोंचा ना करेंगे 

गुस्सा है तहज़ीब-ए-ताल्लुक़ का तलबगार 
हम चुप है बाहर बैठे है गुस्सा ना करेंगे 

कल रात बहुत गौर किया है सो ऐ जॉन 
तय कर के उठे है के तमन्ना ना करेंगे   

- जॉन एलिया 

Monday 11 January 2016

और एक ग़ज़ल हो गई

खाली थाली पर चार जोड़ी निगाहें ,
चूल्हे पे पकता अर्थव्यवस्था को सारांश
थाली पे पड़ी रोटी की पहली थाप
और एक ग़ज़ल हो गई 

Saturday 9 January 2016

तुम भी बेवफाओ पे मेहरबां हो गए हो

तुम भी बेवफाओ पे मेहरबां हो गए हो , 
लगता है किसी मुल्क के हुक्मरां हो गए हो

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...