Friday 28 April 2017

ललका गुलाब





भोजपुरी मने खाली बगल वाली जान मारे ली नइखे, ई दुर्भाग्य के बात बा कि अइसन मधुर भासा के खातिर अपनहि समाज में लोगन के मन में दुर्भावना बा। हम भोजपुर प्रदेश के नइखी तबहु भोजपुरी खून में बा अउर खून खउल जाला जब केहू भोजपुरी खातिर अप्सब्द इस्तेमाल करेला। इ हो बात सही बा कि सार्थक प्रयास ना कइल गइल ह। अमित जी के बहुत बहुत बधाई ललका गुलाब खातिर  ई प्रयास जारी रहे 

Friday 21 April 2017

इतना भी आसान नहीं है जॉन तक पहुंचना : जॉन एलिया मेरी नज़र में

कोई मुझ तक पहुंच नहीं सकता , 
इतना आसान है पता मेरा।  

जॉन को चाहने वालों की संख्या लाखो में है और रोज उनकी तादात बढती जा रही है।  देवनागरी में जब से जॉन के कलाम आए है, उनके मुरीदो को ज़ियादा सहूलियत मिली है खासकर हिन्दुस्तान में।  युट्यूब पे जॉन पर काफी कुछ मौजूद है, लोग ने अपने अपने हिसाब से इस अज़ीम शायर को पढ़ा और समझा। मै भी उन्ही मुरीदो में से एक हु और जॉन को पढ़ता रहता हु।  मेरे पास कोई ऐसी डिग्री नहीं है जिससे साबित हो कि क्या वाकई में मेरे अहसासात जो जॉन को लेकर है उनमे कितनी सच्चाई है और हो सकता है यही एक कारण हो जो मेरे लेखो को पक्षपाती नहीं बनाता है क्योकि मैंने जॉन के सिर्फ और सिर्फ एक पाठक के रूप में देखा पढ़ा समझा और लिखा। आप भी कोई राय कायम ना करे बस पढ़ते रहे।इस बात में भी दो राय नहीं है कि यही वो वक्त है जब जॉन की शायरी पे सही गलत जो भी हो लिखा जाएगा, ये काम शुरू हो भी चुका है।  इसी सिलसिले को आगे बढ़ाने की मेरी एक कोशिश है।    

जॉन की शायरी जिस कदर रोज़ - रोज़ सोशल मीडिया पे पढ़ने को मिलती है उससे ये तो यकीं है कि लोग जॉन को पढ़ रहे है और पसंद भी कर रहे है लेकिन क्या जॉन का पूरा वजूद उन शायरियो के आस पास ही है? क्या जॉन की झुंझलाहट ही जॉन के चाहने वालो को उनके पास लाती है ? क्या जॉन का अंदाजे बयां ही था जो उन्हें और शायरों से जुदा करता है ? क्या कारण था उनकी झुंझलाहट का ? मुझे  लगता है जॉन एक शक्शियत है जिसे शायरी के मेयार-ए -ख़ाम से बाहर निकल कर देखना होगा। सिर्फ चंद शेर और कुछ वाक्यात जॉन की तर्जुमानी नहीं कर सकते। जॉन के कई शेर आशिको और कामरेडो की डायरियों में मिल जाएंगे। 'रोमैण्टिसिज़्म' और 'रेसिस्टेन्स' का भरपूर मिश्रण थे , लिकेन एक और जॉन था , दिवार के पीछे जो बाहिर आना ही नहीं चाहता था वो पीछे रह कर ही तंज करना चाहता था खुद पर भी और जमाने पर भी और इसी जॉन की मुझे तलाश है।

जॉन एलिया के लिए कही गई पीरजादा क़ासिम की एक गज़ल के कुछ शेर जिससे मै अपनी बात शुरू कर रहा हु। ये गज़ल खुद में जॉन की शख्सियत के विषय में कुछ बाते बखूबी कह देती है    

ग़म से बहल रहे है आप, आप बहुत अजीब है 
दर्द में ढल रहे हैआप, आप बहुत अजीब है 

अपने खिलाफ फैसला खुद ही लिखा है आपने 
हाथ भी मल रहे है आप, आप बहुत अजीब है 

वक्त ने आरजू की लौ देर हुई बुझा भी दी 
अब भी पिघल रहे है आप,आप बहुत अजीब है 

ज़हमते जर्बते दीगर  दोस्त को दीजिये नहीं 
गिरके संभल रहे है आप, आप बहुत अजीब है  

दायरावर ही तो है इश्क के रास्ते तमाम 
राह बदल रहे है आप आप बहुत अजीब है 

दश्त की सारी रौनके ख़ैर से घर में है तो क्यू   
घर से निकल रहे है आप, आप बहुत अजीब है 

अपनी तलाश का सफर ख़त्म भी कीजिये कभी 
ख्वाब में चल रहे है आप, आप बहुत अजीब है 


जॉन के शेर कहने का अंदाज और उनकी शायरी में झुंझलाहट एक बहुत बड़ा कारण है उनके चाहने वालों को उनके पास पहुंचाने का।  ज्यादातर लोग मुशायरों में उनके अंदाज को देख कर ही उनकी और आकर्षित होते है। जॉन के पहले भी कई शायर थे जिनका अंदाज लोगों को याद होगा जैसे आदिल लखनवी लेकिन जॉन की निजी जिंदगी भी उनके अंदाज से मेल खाती थी, बेतकल्लुफ, बेफिक्र और बुलंद ।  जॉन एलिया जरुरत से ज्यादा सेंसेटिव ( हस्सास ) थे इसलिए किसी भी वाक्ये पे उनका रिएक्शन आम लोगो या दूसरे अदीबो से जुदा होता था।  हालांकि कमोबेश सभी कलाकार या कला के चाहने वाले सेंसेटिव होते है लेकिन झुंझलाहटों  को जब्त कर लेते है कारण वो सामाजिक और व्यक्तिगत बेड़िया जिनमे वो बंधा हुआ होता है।  जॉन आजाद थे इन बेड़ियों से इसलिए उस झुंझलाहट को उसी अंदाज में पेश करते थे जैसा वो महसूस करते थे। जॉन का शायर होना उनकी पारिवारिक पृष्टभूमि की वजह से था लेकिन उनके पिता शफ़ीक़ हसन एलिया ने उनको शायरी के अलावा कई ऐसी विधाओं से अवगत कराया जिसको जॉन ने ना केवल पढ़ा लेकिन ताउम्र उन फलसफ़ो पे चलते भी रहे। उनसे बड़े दो भाई रईस अमरोही और सैय्यद मोहम्मद तकी उस समय उर्दू अदब के प्रतिष्ठित नाम बन चुके थे।  इस संगत और माहौल का एलिया पर भी खूब असर पड़ा होगा क्योंकि कहा जाता है कि उन्होंने अपना पहला शेर आठ साल की उम्र में ही कह दिया था।  इसका बहुत बड़ा कारण उनका शिया मुसलमान होना भी है जहां मजलिसों की पुरानी रवायात है और साथ साथ उनका अमरोहा में होना जिसके बारे में सयाने कह गए है कि अमरोहा में बच्चा भी रोता है तो तर्रनुम में। अब किसी की परवरिश इस माहौल में हो तो शायरी तो उसके रगों में होगी ही हालांकि जॉन दो कदम आगे निकले। जॉन का मानना था कि किताबों को पढ़ के अगर अमल ना किया गया तो वो ना पढ़े के बराबर होता है। प्रोग्रेसिव पोएट्री और जमाने के बदलते दौर में उन फलसफ़ो  पर अमल करना बहुत कठिन था , जॉन ने अमल किया। उनकी नज्म के कुछ हिस्से,

मेरे कमरे में किताबो के सिवा कुछ भी नहीं 
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर

इन में इक रम्ज़ है , इस रम्ज़ का मारा हुआ ज़हेन
मुशदा ए इशरत ए अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता !

मेरे कमरे का क्या बयां की जहां 
खून थूका गया शरारत में 


ये एक नज़्म ही काफी है उनका इल्म और किताबों के प्रति बेकरारी और चाहत को दर्शाने के लिए।  लोग कहते है कि ये फ़न उन्हें विरासत में मिला था, ये दीगर बात है कि जॉन ने बड़े शिद्दत से उन फलसफ़ो पे अमल किया जिसमे केवल विरासत का हाथ नहीं हो सकता । इस रवैये के कारण समाज का दंश झेलना तो लाजिम था। जॉन को झुंझलाहट थी की कोई उनको समझा नहीं सकता उनके सिवा।  उनका ये अकेलापन और अपने आप से गुफ्तुगू शायरी में मुकम्मल तौर पे झलक के सामने आती है। जॉन की शायरी में लेकिन इस अकेलेपन से पैदा होने वाली बेचारगी के बजाय एक किस्म की बेफिक्री दिखती है और जो सोशल मीडिया पर मौजूद आशिकों को खूब भाती है।  

जॉन का जिक्र आप किसी से करे आपको पाकिस्तान या हिन्दुस्तान नज़र आए ना आए, अमरोहा ज़रूर नज़र आएगा। जॉन जब कहते है

शहरे -ग़द्दार जान ले की तुझे 
एक 'अमरोहवी' से खतरा है

अपने छोड़े हुए मुहल्लों पर
रहा दौराने-जांकनी कब तक
नहीं मालूम मेरे आने पर
उस के कूचे में लू चली कब तक.

जाइये और ख़ाक उड़ाइये आप
अब वो घर क्या कि वो गली भी नहीं 

और भी बहुत सारे उदहारण हो सकते है जो जॉन का अमरोहा के प्रति बेइन्तेहाई प्रेम दर्शाते है।  २३ साल की उम्र में हालात ने जॉन को अमरोहा से तो अलग कर दिया लेकिन अमरोहा को जॉन से अलग नहीं कर पाए। पूर्वी उत्तरप्रदेश में बोले जाने वाले देसज/देसी  शब्दों का इस्तेमाल आप जॉन की शायरी में देख सकते है। जानकारों ने ये जरूर कहा है कि बहुत ज्यादा छूट होती नहीं है इस शायरी के फन में लेकिन अकबर इलाहाबादी , इब्ने इंशा जैसे शायरों ने भी इस्तेमाल किया और बखूबी किया , जॉन चुकी चलत फिरत की बातचीत को शेरो में ढाल देते थे इसलिए उनके लिए बेहद जरुरी था ऐसे शब्दों को इस्तेमाल करना और उन्हें ज़िंदा रखने के लिए बड़ी खूबसूरती से इस्तेमाल करना।  अब बात उसी अमरोहा की, जॉन के भाइयों का कम्युनिस्ट पार्टी से मुस्लिम लीग में जाना एक बड़ा कारण था कि जॉन अमरोहा छोड़ पाकिस्तान चले गए लेकिन जैसे कि मैंने कहा , अमरोहा से उन्हें बेइन्तेहाँ मोहब्बत थी सो वही झुंझलाहट आपको शायरी में बहुत ही बेमिसाल तरीके से दिखेगी। बहुत से शायरों कहानीकारों ने बंटवारे की दास्ताँ को बखूबी दर्शाया है , और काफी मार्मिक ढंग से भी लेकिन जॉन का अंदाज उस तकसीम को ले के भी  जुदा था। धार्मिक कट्टरता पे उनका लहज़ा बिलकुल कबीर की तरह था , हालांकि कबीर की तरह व्यापक नहीं था फिर भी उन्होंने किसी का बचाव नहीं किया, चाहे मंदिर हो या मस्जिद। जब वो 'इस्टैब्लिशमेंट' पे हमला करते है तो खुद को भी एक 'इस्टैब्लिशमेंट' मान कर बखूबी तंज करते है , वो जानते है कि खुद वो एक 'इस्टैब्लिशमेंट' का हिस्सा है और चाहे अनचाहे उन्हें इसका साथ देना पड़ रहा है, ऐसा बहुत कम लोगों ने किया।    

धरम की बांसुरी से राग निकले 
वो सुराखों के काले नाग निकले, 

रखो दैरो-हरम अब मुक़फ़्फ़ल
 कई पागल यहां से भाग निकले, 

वो गंगा जल हो या आबे-ज़मज़म 
ये वो पानी हैं जिन से आग निकले

है आखि़र आदमियत भी कोई शै 
तिरे दरबान तो बुलडॉग निकले


जॉन की शायरी को ले बहुत सारे जानकार ये कहते हुए नज़र आएँगे कि  शेरों में बहुत ज्यादा गहराई, मार्मिकता, सघनता की चाह रखने वालों को जॉन निराश कर सकते है।  कुछ हद तक मै भी ये मानता हु , लेकिन अभी तो उस किताब का खुलना चालु हुआ है जिसका नाम है जॉन एलिया , ना जाने कितने नए पहलू है जो देखने को मिले। 


मौलवी साहब

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