Friday 22 July 2016

If you love books, you need to have a library at home !!!

What books mean to the society is above any explanation. Human civilization has always followed foot steps engraved in classics and still we like to take guidance of few immortal creations across various languages of the world to survive,sustain and stabilize. Books have unique charms that cannot be replaced by digitized information.


Many, many studies have been conducted on the health and psychological benefits of reading books. If you spend the time going through the long lists of results, you might just walk away thinking that reading is some sort of super activity, a wonder drug that makes us smarter and healthier. Honestly, you wouldn't be that far off.Every book lover knows and understands the irrational feeling of falling in love with a book at first sight. Sometimes it is a promising title, sometimes it is a gorgeous cover, sometimes it is an interesting blurb at the back promising an unforgettable story, sometimes it is a combination of these. But when it comes to enjoy a book at complete peace. You need a proper ambiance so that you can go through and in between every line that will bring you closer to what the author has intended to.

  I have witnessed as a book lover that almost all the book lovers try to create a library of their own .Studies from 27 countries found that families with books in the home (even as few as 20), had children who attended school between 2.4 years and 6.6 years longer than children who lived in homes without books. The researchers indicated that a library of 500 books provided the maximum educational value.

The study also found that the presence of books in the home had twice as much affect on a child’s perseverance in attending school than the education level of her or his parents.

Having a home library could mean the difference between a child who becomes a doctor and a child who drops out of high school. The data from the study makes it obvious that building a home library — print, digital, or a combination — is essential for long-term academic success for home schoolers.


I just love decorating books and mags where one discovers amazing interiors, which may seem inaccessible, but they always feature great ideas to pickup and reproduce at home. Books can be placed on bricks and boards (most of mine are) or displayed in aesthetically pleasing ways, such as on polished oak shelves (my dream). Durability, visibility, and order are the three cardinal principles of organization for any library.You can follow some of our below products to make a lively library or a sweet reading space at home

You do not want a bookshelf to come crashing down on you. Nor do you want the books themselves to be crushed and creased in such avalanches. The skeleton for your library should be durable. Beware of sagging boards and high stacks of tottering books.


Modern homes are not just about living rooms, the kitchen, bedrooms, the dining space or the bathrooms. While they do constitute the bare minimum, home owners across the world always wish to add an extra dimension to their homes — which not only makes the house unique and special, but also caters to the specific interests of those residing in it. From media rooms to stunning stone fireplaces, every single special element has been put in place to reflect their individual design choices and priorities. The latest and hottest trend is the advent of amazing home libraries.


Thursday 14 July 2016

जिसने शायरी के फन में अदब को सम्भाल रक्खा है : राजेश रेड्डी

मुशायरे की रवायत सदियों पुरानी है।  पिछले दो दशकों में साहित्य के अलग अलग क्षेत्रो में बदलाव के साथ साथ इसका रूप और रंग भी बदला है।  नए चहरे , नया प्रारूप और लोगो का इसके प्रति बदलता नजरिया ये तो साबित करता हीं  है कि बदलते वक़्त ने मुशायरो की रूह तो नहीं लेकिन उसका आवरण जरूर बदला है। मौजूदा नस्ल जिनके कंधो पे साहित्य का भविष्य निर्भर है , इस बदलाव की समीक्षा नहीं कर पा रही है , और पुरानी पीढ़ी केवल तंज कस रही है और किसी कीमती चीज को खोने का विलाप कर रही है । उसकी रूचि सामंजस्य बिठाने की और नहीं है।  हालांकि ये बात भी सच है कि चाहे वो गज़ल हो गीत हो या कविता , अपना मंच वे स्वयं बनाती है और वे खुद का निम्मित भी है।  साहित्य का सफर किसी भी पीढ़ी का मोहताज नहीं होता , बदलाव अगर गलत होते है तो साहित्य में इतनी शक्ति होती है कि देर से ही सही लेकिन वो पुराने परिधान में आ जाती हैं । इन सबके बावजूद गजल की रूह जिसको एक शरीर तो चाहिए ही संवाद करने के लिए , थोड़ी परेशान नजर आ रही थी।  अगर हम हिंदी उर्दू गजलों को अलग अलग कर दे तो ये परेशानी हिंदी गजलों में व्यापक रूप से दिखेगी ( लेकिन कोशिश रहेगी बात केवल गजलों की हो और उसमे भी मंचो पे पढ़े जाने वाली गज़ल )।  अगर उर्दू वाले हिंदी या अन्य भाषाओं और बोलियों के प्रति थोड़े सख्त हैं तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। पर इतने सख्त पैमाने वाले जानकार भला कितने हैं? 


मेरे जैसे गज़ल के कद्रदान जिनका ज्ञान ८० के दशक से शुरू होता है , आज २०१६ तक अगर उस बदलते रूप की समीक्षा करने की कोशिश करे तो इस नतीजे पर आसानी से पहुंच जाते है कि मुहशयरे भी "फटाफट " ढाँचे में आ गए है। अगर उस सामंजस्य की बात  की जाए तो मेरी नजर में खुमार बाराबंकवी और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद गजल की क्लासिकल रवायत ठहराव पर आ गई है। मुशायरो का तौर अब उस क्लासिकी को अनदेखा कर रहा है।  शोर शराबा ज्यादा है और संजीदा नज्मे और गजले बस पुराने ज़माने की आपबीती सी हो गई है ।  मेरे पसंदीदा जॉन कहते थे "दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यों हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं " । लेकिन मंचो से तालियों की चाह ने इस अदबी फन को  अपने सफर से गुमराह कर  दिया है।  

अब बात राजेश रेड्डी साहब की।  जिस अंदाज का जिक्र मैंने ऊपर किया और जिस सामंजस्य की कमी मेरी नजर में इस गिरते स्तर का कारण है वो सारी कमिया कई दशकों से जनाब राजेश रेड्डी साहब मुशायरो के मंचो से दूर करने की कोशिश कर रहे है। मुझे लगता है की खुमार साहब के बाद गजल की वो क्लासिकी रवायत जनाब राजेश रेड्डी ने ही सम्भाल रक्खी है।  आप अगर खालिस गज़ल सुनने के शौक़ीन है तो राजेश रेड्डी उस लिहाज़ से आपके पसंदीदा होने चाहिए।  इन्होने सिर्फ गजलों को अपनी पूरी कारीगरी समर्पित कर दी है।  तरन्नुम में गज़ल पढ़ने का उनका तरीका आपको गज़ल के उसी रूप के नजदीक ले जाएगा जिसके लिए शायद इसका ईजाद किया गया होगा।  कई प्रसिद्ध गज़ल गायकों ने इनकी गजलों को आवाज  दी है लेकिन वो स्वयं जब गज़ल पढ़ते है तो सुनने वालो पर दोगुना जादुई असर होता है।  अगर गज़ल की बारीकियों की बात करे तो हर लफ्ज में नक्काशी।  मिसरो का चयन बहुत ध्यान से करते है जिसके कारण उनकी हर गजल मुकम्मल होती है।  

कुछ और बरतना तो आता नहीं शे'रों में
सदमात बरतता था, सदमात बरतता हूँ

जीने की कोशिशों के नतीज़े में बारहामहसूस ये हुआ कि मैं कुछ और मर गया

अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब हैहर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ।  

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमतखु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

वो खुशनसीब हैं, सुनकर कहानी परियों कीजो अपनी दर्द भरी दास्तान भूल गए

राजेश रेड्डी, जिनको सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' सम्मान मिल चुका है , उस लहज़े के शायर है जिन्हे सिर्फ महबूबा की जुल्फे या जिंदगी की कश्मकश नजर नहीं आती बल्कि इंसानी वजूद के हर उस मंजर पर वो बखूबी लिखना जानते है जिससे एक आम आदमी बेचैन हो जाता है।  रवायात के दायरे में रह के मौजूदा दौर पे शेर लिखना जिसमे एक छोटे बच्चे का खिलौना भी शामिल है , एक बुढ़िया की लाठी भी, एक परिंदे का दर्द भी और एक मजलूम की चीख भी।  गज़ल  को बहुत गर्व होता होगा ये सोच कर कि सारी बंदिशों के बावजूद एक शायर हर गज़ल में सुर और ताल को भी बखूबी पिरोता है।  घर में मौसिकी का  माहौल पहले से था सो राजेश रेड्डी  को ये आयाम विरासत में मिला।  लेकिन मौसिकी के अलावा उनका तजुर्बा और जिंदगी की समझ उनके अशआर में बेहतरीन ढंग से नजर आता है।  

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
  

तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

मेह्रबाँ जब तक हवायें हैं तभी तक
इस दिए में रोशनी बाक़ी रहेगी

कौन दुनिया में मुकम्मल हो सका है
कुछ न कुछ सब में कमी बाक़ी रहेगी


'दीवाने - ग़ालिब ' को उस्ताद मान कर राजेश रेड्डी ने अपने शायरी के सफर का आगाज़ किया।  लेकिन उनकी शायरी में ग़ालिब से लेकर मजरूह सुल्तानपुरी तक का सफर दिखाई देता है।  एक बात है जो मुझे राजेश रेड्डी जी का मुरीद बनाती है वो है उनका संजीदा मुद्दों पे लफ्जो की नक्काशी , उन्होंने तंज नहीं कसा किसी पे।  संजीदा मुद्दों को उसी संजीदगी से पेश किया और उसी क्रम में गजल की नियमावली का पालन भी किया। 

कोई भी जाना नहीं चाहता क्यूँ दुनिया से
इस सराए में ,मैं हैरान हूँ , ऐसा क्या है

क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
नाराज़ है ज़मीं से ख़फा आसमां से हम

ये और बात है कि ज़ुदा है मेरी नमाज़
अल्लाह जानता है कि काफ़िर नहीं हूँ मैं

जितना मैंने लिखा है वो बिलकुल सूरज को दीया दिखाने के बराबर है। अभी इनपर बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है और ये सिलसिला चलता रहेगा जबतक गज़ल के कद्रदान ज़िंदा है।  अंत में राजेश रेड्डी की वो गज़ल जिसको जगजीत सिंह ने गाया भी और राजेश रेड्डी को दुनिया भर में मशहूर किया।  

यहाँ हर शख़्स हर पल हादिसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

न बस में ज़िन्दगी इसके न क़ाबू मौत पर इसका
मगर इन्सान फिर भी कब ख़ुदा होने से डरता है

अज़ब ये ज़िन्दगी की क़ैद है, दुनिया का हर इन्सां
रिहाई मांगता है और रिहा होने से डरता है

Wednesday 13 July 2016

तेरा वादा ना पूरा हुआ , शाम से फिर सहर हो गई - अंजुम रहबर

तेरा वादा ना पूरा हुआ , शाम से फिर सहर हो गई
मुझको खिड़की पे बैठे हुए , आज भी रात भर हो गई।

दो दिलो को जुदा कर गई एक परदेस की नौकरी
वो भी पागल उधर  हो गया , मैं भी पागल इधर हो गई।

घर के लोगों को हर बात का,तेरी मेरी मुलाक़ात का,
पायलों से पता चल गया , चूड़ियों से खबर हो गई।

तन में बिजली सी लहराई थी , याद किसकी थी क्यों आई थी
चलते चलते ये ठंडी हवा , क्यों पसीने में तर हो गई।

- अंजुम रहबर


Thursday 7 July 2016

ये है एक जब्र इत्तेफ़ाक नही जॉन होना कोई मजाक नही : जॉन एलिया मेरी नज़र मे

जॉन के बारे में लिखने से पहले मै ये स्पष्ट करना चाहूँगा कि मै ना तो कोई शायर हु ना हीं उर्दू का जानकार और किसी भी फलसफे से मेरा कोई ख़ास राबता नही  है।  लेकिन ये बात भी सच है कि जॉन एलिया को जानने और समझने के लिए उपर्युक्त किसी भी सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है , इसी लिए जॉन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़े और तर्कसंगत समीक्षा करे।  

शायर तो जमाने में बहुत हुए , हो भी रहे है और सोशल मीडिया के इस दौर में शायरों की हर प्रकार की जमात अपने-अपने कुनबे को भली भाँती पाल पोस भी रही है। जब सब अच्छा चल रहा है तो इतिहास के पन्नो में से एक शायर को निकाल के उसके बारे में विश्लेषण करना कितना उचित है? या अगर बात फलसफे और उर्दू शायरी के सफर की है तो हर शायर या उस लहजे हर साहित्यकार उसी एक रास्ते पे है शब्दावली बस अलग अलग है , फिर खासकर जॉन को उस भीड़ में से निकाल कर आंकना सही है ?जॉन को राजनीतिक दर्शन , खगोल विज्ञान और शास्त्रीय परंपराओं में प्रशिक्षित किया गया था , फिर भी वह कोई फैज अहमद फैज या जोश मलीहाबादी नहीं थे। उनके अशआर उर्दू ,फ़ारसी और हिंदी के शब्दों का मुकम्मल इस्तेमाल थे , वो जुमलों का भी इस्तेमाल करते। हकीकत,वजूद और मौजूदा समस्याओं पे उनकी पैनी नजर थी जो उनके ढेरो कलाम में  नजर आता है। लेकिन ना तो वो अहमद नदीम कासमी थे ना अली सरदार जाफरी।  जिस व्यक्ति को मानवीय संवेदनाओ में कोई ख़ास रूचि नहीं थी , जो सामजिक मूल्यों को हमेशा दरकिनार करता था ,तो उस व्यक्ति की शायरी में मानव केंद्रित दर्शन कैसे निकलेगा ?तो फिर जॉन ही क्यों ? इन सवालों का जब जवाब ढूंढता हु तो तीन तर्क है जो जॉन को किसी भी शायर,विचारक और सूफी संत से अलग करते  है और जॉन जो तीनो में से मेरे हिसाब से स्पष्ट रूप से कोई नहीं थे, लेकिन सबसे जुदा अंदाज ही जॉन को तीनो की  मिश्रित अभूतपूर्व  कृति बनाता  है।  वो तीन तर्क है :जॉन मिजाज से शायर थे लेकिन बाकी किसी भी शायर की तरह उन्होंने गजल या नज्म की बारीकियों पे ज्यादा ध्यान ना देते हुए फलसफे को प्राथमिकता दी। आसान लहज़ा , साफगोई , लफ्जो का जखीरा होते हुए भी शेरो में बोल चाल की शब्दावली को प्राथमिकता।  गज़ल की बहरो के साथ ऐसी नक्काशी जिससे गज़लगोई बातचीत में बदल जाती है। उनके कुछ शेर जिनका फलसफा सदियों पुराना है लेकिन लहजा केवल जॉन का।  

जहर था अपने तौर पे जीना, 
कोई एक था जो मर गया जानम। 

अब निकल आओ अपने अंदर से
घर में सामान की जरुरत है

उड़ जाते है धूल के मानिंद ,

आंधियो पे सवार थे हम तो।  

अब नहीं कोई बात खतरे की ,
अब सभी को सभी से खतरा है।  

तू है पहलू में फिर तेरी खुशबु ,
हो के बासी कहां से आती है।  

दुसरा, जॉन विचारक भी नहीं थे , क्योकि ना तो वो किसी कबीले को मानते थे और ना ही उन्होंने कोई कबीला बनने दिया। हर विचारधारा पे तंज कसा , सवाल पूछे , गालियां दी लेकिन कोई सटीक जवाब कभी नहीं दिया, हालांकि दर्शन उनकी शायरी का एक अहम अंग है लेकिन कभी कभी वो भी उसमे खुद उलझते हुए नजर आते है , या हो सकता है ऐसा ही वो चाहते हो। जॉन को मजाक उड़ाने की बहुत आदत थी , फलसफों में हम अगर उलझते है तो वह एक जॉन का इशारा भी है स्थापित कबीलों के ऊपर। जॉन चाहते थे कि हम आँख बंद के भरोसा ना करे , इसलिए भी उलझा के सोचने पे मजबूर करते थे।

मुझे अब होश आता जा रहा है
खुदा तेरी खुदाई जा रही है।

यूँ जो तकता है आसमान को तू ,
कोई रहता है आसमान में क्या।

तीसरा ,जॉन सूफी तो कतई नहीं थे , लेकिन जीवन शैली के अलावा वो हर वो जलवा रखते थे जो एक सूफी संत रखता है। अब उस पहलू की बात करते है जिसने मुझे प्रेरित किया कि मैं जॉन को रोज़-रोज़ पढ़ु , समझु और नए आयाम पे पहुंचने की कोशिश करू।  मेरी नजर में आजतक इस कायनात में कोई ऐसी शख्सियत नहीं हुई है जिसने अपनी बर्बादी का ढिंढोरा खुश हो के पीटा हो और उसी में खुश हो , उसी ढिंढोरे से शायरी निकालना , फलसफा निकालना , और कभी कभी एक अनकहा रूहानी एहसास निकालना जो हर व्यक्ति के लिए बहुत नया और अपना हो। जॉन के समकालीन  विचारको ने भी स्थापित सत्ता पे तंज किया , लेकिन सभी बच बच के किया करते थे। जॉन का लहजा और आवारापन ना केवल बेबाक है बल्कि ज्यादा दांव पेंच में ना फंसते हुए सीधा प्रहार करता है।  कुछ लोगो के लिए जॉन की व्यवहारिक नाटकीयता उनकी पहचान थी।  लोगों की दिलचस्पी उनके शेर कहने के लहज़े में रहती थी।  लेकिन मेरे लिए जॉन वही शख्स है जो निराशावादी लगता तो है , लेकिन आशावादियों के खोखलेपन को सरेआम नंगा करता है।  जॉन गम के शायर नहीं है , उनका तल्ख़ मिजाज उनकी शायरी में भरपूर दिखता है , लेकिन उसमे निराशा नहीं वरन उनका तजुर्बा और भिन्न फलसफों पे उनकी पकड़ दिखती है।  

और तो कुछ नहीं किया मैंने 
अपनी हालत तबाह  कर ली है।  

जो गुजारी ना जा सकी हमसे 
हमने वो जिंदगी गुजारी है 

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

मैं बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि,
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

जॉन के बारे में रोज लिखा जा रहा है , रोज उनकी बर्बादी का जश्न मन रहा है , रोज नए अंदाज में उनकी सूफियाना शायरी को परोसा जा रहा है। कभी - कभी लगता है कि जॉन जिन आडम्बरो से अपनी शायरी को दूर रखना चाहते थे , उनके मरने के बाद उसी नाकाबिल तौर में उनकी पूरी शख्सियत को ढाला जा रहा है।  जॉन दर्शन के विषय है प्रदर्शन के नहीं।  

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई

साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई

तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई

दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई

मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हो ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई

ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई


हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मेरे  मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई



Tuesday 5 July 2016

तुम्हारे दर से जब गुजरते है

तुम्हारे दर से जब गुजरते है 
हर कदम पे कुछ बिखरते है 

खिज़ा की आहट और एक गुल 
हम भी रोज युहीं सवरते है 

सुबह वाइज़ पे जिंदगी है 
शाम साथ ले के मरते है 

थकन रूह में है और ना जाने 
जिस्म क्यों करवट बदलते है 




मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...