Saturday 31 October 2015

मै हुं जो जॉन एलिया हुं जनाब मेरा बेहद लिहाज कीजिये

जॉन एलिया को समझना आसान नहीं है , भले ही पहली नजर में उनके किसी भी शेर में आपको गहराई नजर नहीं आए लेकिन ,उस शायरों के शायर के किसी भी लफ्ज को समझने के लिए , उस शायर को समझना , उसके वक्त को समझना बहुत जरुरी है।  गुफ्तगू को शायरी में बदलना , फलसफे के नए आयाम और कारागारी की जगह पे सादागरी।  जॉन एलिया की शायरी में अकेलापन  तो है ही लेकिन मेरे हिसाब से अंदाज सूफियाना है।

मै हुं  जो जॉन एलिया हुं  जनाब
मेरा  बेहद लिहाज कीजिये


शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी..
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं 
आप.. वो.. जी.. मगर.. वो सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं

क्या सितम है की तेरी सूरत 
गौर करने पे याद आती है 

मै  भी बहुत अजीब हुं  इतना अजीब हुं  की बस
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

मुझको आदत है रूठ जाने की
आप मुझे मना लिया करो



और आंख मूंदे गंतव्य की ओर अग्रसर हुं

सड़क पे अतिक्रमण है ,
ठेले है , रेहड़ी वाले है 
बची सड़क पे गाड़िया 
सरपट दौड़ने की चाह में 
हार्न बजा रही है 
जनता सरक सरक के 
ठेले से , गाडी से बचते हुए 
बीच का रास्ता चुन 
गंतव्य की  ओर  
आंख मुंदे अग्रसर है 
नालियो में प्रगति के प्रतिक 
कम्पनियो के प्लास्टिक 
जिनमे उनकी मंशा 
को पैक किया गया था 
आकाश की निहार रही है 
मै भुत के ज्ञान से 
भविष्य को बुनने की 
कोशिश कर रहा हु 
और आंख मूंदे 
गंतव्य की  ओर
अग्रसर हुं। 

Monday 26 October 2015

दिल्ली कविता और मै

साहित्य और साहित्यकारों का दर्द हमेशा से यह रहा है की उसका परिवार उन लोगो तक सिमित है जो कही ना कही साहित्य लिखने से जुड़े है।  समकालीन कवियों की रचनाए समाज से कम जुड़ पा रही  है , लयबद्ध  कविता और छंदो से कविता की बढ़ती दुरी कविता का सौंदर्य कही ना कही कम कर रही है।  कवि  गोष्ठी और  कवि सम्मलेन की रचनाओ में  फर्क करना मुश्किल हो रहा है । लोग लिखने पे ज्यादा जोर दे रहे है ,पढने पे कम।  साहित्य में भी फैशन आ गया है , मार्केटिंग है।  ये अभी विवाद का विषय है की क्या इस दिखावे से कविता की आत्मा पे कोई असर पडेगा या ये एक मात्र तरिका है नवोदित कवियों का उस चार दिवारी को तोड़ने का जिसमे तथाकथित कवि अंगद पांव जमाए बैठे है।   बरहाल दिल्ली में भी मिला जुला अनुभव रहा पिछले एक महीने में , बेंगलुरु में निश्चित तौर पे काफी काम हो रहा है साहित्य पे।  आयोजको से ये अनुरोध है की वो नवोदित लेखको और कवियों को गद्य पढने पे जोर दे।  मै शुक्रगुजार हुं  दिल्ली में कम से कम मेरे लिए सीखने और समझने के लिए काफी रास्ते खुले है 


Saturday 24 October 2015

कौन लूट ले जाएगा खजाने मेरे

कौन लूट ले जाएगा खजाने मेरे 
कुछ यु मोअतबर है फ़साने मेरे 

 तन्हाई में भी खलल  पड़ता है 
ढूंढ ले आओ नए ठिकाने मेरे 

किसी ने मुद्दत से दगा ना दिया 
कहा गए सब दोस्त पुराने मेरे 

तू यु ना चुरा मुझ से निग़ाहें 
तुझ पर नहीं है निशाने मेरे 

फिर जिक्र तेरा , मेरा मुकर जाना 
अभी भी असरदार है बहाने मेरे 




Thursday 22 October 2015

तुम्हारे मौत के है हम जिम्मेदार कलबुर्गी

तुम्हारे मौत के है हम जिम्मेदार कलबुर्गी
हुआ तुझपे मेरी ही मौन का वार कलबुर्गी

लिखा तूने तो उसका ये असर होगा जमाने पे
कलम पैदा करेगी फिर से दो - चार  कलबुर्गी

जिन्होंने शब्द को चाहा बन जाए दरबारी
तुम्हारी मौत उनके लिए है हार कलबुर्गी

विचारो और गोली की एक लंबी लड़ाई में
तुम्हारी मौत ने भर दी है फिर हुंकार कलबुर्गी


Sunday 18 October 2015

मुनव्वर राणा साहब ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया

हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार काशी नाथ सिंह और उर्दु के महबुब और मशहुर शायर मुन्नवर राणा ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लॉटाया ..जिस देश मे सत्य की स्थापना का काम साहित्य ने किया हो जिसको गर्व हो अपनी भाषा की विविधता पे , जहा सूर और तुलसी केवल कवि नही वरण पुजनिय समझे जाते हो , जहां कविता ने धर्म को बल दिया , अजादी की लडाई मे स्वर दिया, प्रेरणा दी , आज उन सभी शब्द शिल्पियो को चॉतरफा घेरा जा रहा है , गाली दी जा रही है सभ्य समाज देख रहा है l  दंगाई बलवाई देश मे कानुन तय कर रहे है ऑर हुकुमत मौन है 

Saturday 3 October 2015

मेरी कविता का हिस्सा है

सड़क पे गिरा हुआ "वो"
मेरी कविता का हिस्सा है
उसका हिस्सा
मेरे हिस्से से जुड़ कर
एक शुरुआत करते है
और हिस्सा बनने कि
कोशिश करते है
किसी सच की
उसके बाद सारा सफर
कट जाता है बाकी
हिस्सो को खोजने मे 

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...