Saturday 25 July 2015

राजनीति, युवा ऑर भाषा

ये बात तब की है , जब मै एक प्रसिद्ध व्यंगकार संपत सरल को सुन रहा था। संपत जी ने बड़ी सफलता से ये सिद्ध कर दिया की जो काम साहित्यशिल्पी सदियों में करते है भाषा के स्तर का परिमाण और परिणाम स्थापित करने में , उसका सत्यानाश  राजनीतिक दल और प्रेमी एक दो चुनावी सभा में ही कर देते है।  इस बात में दो राय नहीं है की भाषा से महत्वपूर्ण और असरदार कोई और माध्यम नहीं है , अपनी किसी भी कही या अनकही भावनाओ को व्यक्त करने के लिए।   लेकिन ये बात भी सच है की ये कला हर सामान्य मनुष्य के पास है , जिसका प्रयोग वो लगातार करता है।  लेकिन समस्या तब आती है जब इसका प्रयोग ख़ास स्थितियो  में करना पडता पड़ता हे किसी ख़ास अंजाम के लिए ,, भावो की गहराई और शब्दों के पीछे छिपे अनकही मंशा के लिए।

देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है , चुनाव एक सामान्य प्रक्रिया है जो लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है।  चुनावो में रिझाने के लिए भाषा का प्रयोग दशको से चल रहा है , समर्थक भी अपने प्रिय नेता के लिए चाय की चुस्कियो के साथ इसी भाषा की मदद से नुक्कड़ों पर दिन रात चर्चा करते रहते है।  साथ ही साथ आज कल सोशल मीडिया तथा इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल से पढने तथा लिखने वालो को राजनीति पर  पढने के लिए बहुत कुछ मिल जाता है।

लेकिन जब हम उस भाषा को सुनते है जिसका प्रयोग राजनीति के लिए किया जाता है तो ज़रा शक होता है की क्या ये वही भाषा है जो सभ्यता का सबसे बड़ा अविष्कार रही है।  कोई भी दल इस 'अभद्र' प्रयोग से अछूता नहीं है।   सुनने वाले , पढने वाले इस अभद्र भाषा को रोज अलग अलग माध्यम से सुन रहे है पढ़ रहे है।  आक्रामकता जरूरी है , आक्रोश भी जरुरी है लेकिन इस आवेग में अगर हम मर्यादो को भूल जाए तो नुक्सान बहुत होता है , भाषा का भी और मंशा का भी।  हो यही रहा है , आवेग में राजनितिक पार्टिया तथा समर्थक भाषा के मूल तत्व को भूल कर केवल अपनी बात सिद्ध हो तथा बहस का निष्कर्ष उनके हक़ में निकले , के लिए भाषा का प्रयोग करते है जिससे भाषा की आत्मा मर जाती है जिसका काम भावो की स्पष्टता तथा विचारो में सामंजस्य बैठाना है।  सोशल मीडिया का बढ़ता प्रचलन एक ओर  जहा , नए लोगो को मंच प्रदान कर रहा है , वही दूसरी और रोक ( मॉडरेशन )ना होने की वजह से वो सारी सामग्री जन सामान्य के पास पहुंच जा रही है जिसका भाषा के मूल भाव से कोई लेना देना नहीं है , और ये अधिकता में आ रहे है प्रमुखत: राजनीति के क्षेत्र में।

आए दिन आप नेताओ को सुनेगे माफ़ी माँगते हुए, ट्विटर पे ट्वीट मिटाते हुए , संसद के पटल पे जवाब देते हुए। केवल भाषा के गलत प्रयोग की वजह से।  सोशल मीडिया जान संचार का आसान माध्यम बन चका है और इसके केंद्र मे है युवा , जिनकी समझ सोशल मिडिया के प्रयोगो की  ज्यादा  है , भाषा के मूल तत्व की कम।  जिसका परिणाम ये होता है की बहस या सामग्री डालते हुए इसका ख़याल नही रखा जाता की इसका असर क्या होगा तथा नुक्सान कितना भयावाह हो सकता है।  युवा भी इसका अधिकतम  प्रयोग राजनितिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए ही करते है।

अब बात युवा की आती है जो इसी अधिकतम सामग्री से सीख रहा है तथा दिनोदिन प्रयोग में ला रहा है।  मामूली बातचीत में आपको  ये आभास हो जाएगा की  साहित्य के माध्यम से जिस भाषा का ज्ञान लोगो को होना चाहिए वो नहीं हो पा रहा है तथा बोल चाल की भाषा में भी अभद्रता बढ़ गई है।  दोष  साहित्यकर्मियो  का भी है।  कूप मंडूक बने रहने का आरोप उनपर सदियों से लगा आ रहा है , जिसका परिणाम ये निकला की भाषा के प्रयोगो में जो डिसिप्लिन होना चाहिए वो बताने वाला तथा मॉडरेट करने वाला कोई रहा नहीं।

मै  ये नहीं कहता की फ्रीडम ओफ़ स्पीच का हनन होना चाहिए लेकिन भाषा को अगर हम केंद्र में रखते है अपनी बात स्पष्ट करने के लिए तो भाषा की आत्मा को ज़िंदा  रखना बहुत जरुरी है , मर्यादा बहुत जरुरी है।  वर्ना हर बहस केवल अगले बहस का मार्ग प्रसश्त करेगी।










No comments:

Post a Comment

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...