Monday 11 April 2016

जॉन एलिया : शायरों का शायर

अगर सवाल फराज या फैज पर हो तो आप दुनिया के किसी भी कोने में हो , हिंदी उर्दू अदब से राब्ता रखने वाला कोई भी शख्स उस का जवाब दे सकता है। यही कहानी ग़ालिब , फिराक और दाग की भी हो सकती है।  ये कहना पूरी तरह गलत होगा और बेबुनियादी भी कि  जो नाम ऊपर दिए गए है उनके लिए ये मुकाम हासिल करना गलत था या वो उन बुलंदियों की छूने के काबिल नहीं थे।  ये मानते हुए कि किसी के ऊपर सामान्य टिप्पणी करने का भी हक़ मुझे नहीं है , मै ये बात पुरे होशो हवस में कह रहा हु कि गज़ल ,कविता , नज्म , गीत या इन जैसे किसी भी रूहानी फन का कभी और कही भी जिक्र होगा तो उसमे जॉन एलिया का अलग मकाम होगा। जॉन एलिया को अगर एक नामवर शायर कहा जाये तो गलत ना होगा , एक ऐसा शायर जो ना तो सिर्फ सपने देखता और बनाता था लेकिन आपको मजबूर करता था उसी ख्वाब के गलियारे में आके जॉन एलिया बन के उस ख्वाब की ताबीर करे।

जॉन एलिया की पैदाइश एक नामवर ख़ानदान में उत्तर प्रदेश के अमरोहा शहर में हुई और वे मशहूर फ़िल्मकार और शायर कमाल अमरोही के भाई थे। उनके पिता को भी शेरो शायरी से बहुत लगाव था या यु कहे की इल्मो अदब के किसी भी खानदान  से गहरा लगाव था जॉन एलिया ने महज़ 8 साल की उम्र में पहला शेर कहा था उस के इलावा इतिहास,  सूफ़ी रवायात और साईंस पर जॉन एलिया की  पकड़ बहुत मजबूत थी जिसका निचोड़ उन की शायरी में भी झलकता है । जॉन एलिया हालाँकि शिया थे लेकिन उन्होंने अरबी की शिक्षा देवबंद में हासिल की थी जो ख़ासकर सुन्नी मुसलमानों का शिक्षा केंद्र है। मेरे लिए जॉन एलिया उस शख्स का नाम है जो शायरों का शायर भी है ( मज़रूह सुल्तानपुरी साहब ने जॉन को शायरों का शायर कहा था ) कुछ लोगो की माने तो २१ वी सदी का सुकरात , कुछ की माने तो फक्कड़ शायर या एक अव्वल दर्जे का एनार्किस्ट। मेरे लिए जॉन सब है और कभी कभी कुछ भी नहीं , इस ना होने में भी होने का और होने में ना होने का अंदाज आपको तब लगेगा जब आप जॉन को पढ़ेंगे। जॉन एलिया को समझना आसान नहीं है , भले ही पहली नजर में उनके किसी भी शेर में आपको गहराई नजर नहीं आए लेकिन ,उस शायरों के शायर के किसी भी लफ्ज को समझने के लिए , उस शायर को समझना , उसके वक्त को समझना बहुत जरुरी है।  गुफ्तगू को शायरी में बदलना , फलसफे के नए आयाम और कारागारी की जगह पे सादागरी ये उनका जुदा अंदाज था।  जॉन एलिया की शायरी में अकेलापन  तो है ही लेकिन मेरे हिसाब से अंदाज सूफियाना है। 

मै हुं  जो जॉन एलिया हुं  जनाब
मेरा  बेहद लिहाज कीजिये


शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी..नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं 
 आप.. वो.. जी.. मगर.. वो सब क्या है तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं

क्या सितम है की तेरी सूरत 
गौर करने पे याद आती है 

मै  भी बहुत अजीब हुं  इतना अजीब हुं  की बस
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

मुझको आदत है रूठ जाने की
आप मुझे मना लिया करो

कभी कभी हम शायर को जिस अंदाज या लहजे के लिए पहचानते है या पसंद करते है दरअसल वो पहचान हमारी और उस शायर के चाहने वालो की होती है।  शायर तो उन्ही लफ्जो में कैद होता है और अपनी आखिरी लफ्ज के ज़िंदा होने तक उसी में कैद रहता है। ये बात आसान लफ्जो में कृष्ण बिहारी नूर साहब के शेर में आपको नजर आएगा जो जॉन के लिए भी सादिक है। 

" मै ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा 
लोग अपने अपने चाहने वालो में बंट गए "

ये किस्सा जॉन के सात ताउम्र रहा लेकिन ऐसा लगता था जैसे जॉन भी यही चाहते थे।  उनके शेरो में दर्द तो था लेकिन आक्रोश नहीं सुकून वाला दर्द जो आपको ये सोचने पे मजबूर कर दे कि इंसान को समझना बहुत आसान तो है लेकिन किसी अंजानी गुत्थी को सुलझाने के चक्कर में हम आसान रास्तो से भटक जाते है।  जॉन कहते भी थे 
"कोई मुझतक पहुंच नहीं सकता 
इतना आसान है पता मेरा "  

जॉन की निजी जिंदगी बहुत मुश्किलों भरी रही , इसकी व्याख्या मै इसलिए नहीं करता क्योकि उनके शेर वो  सारी कहानी चुपचाप कह देते है। मुझे उनके  नज्मो या शेरो को समझने के  लिए भारी मशक्कत नहीं करनी पड़ती है ,  क्योकि हर शेर में लगता है जैसे जॉन नहीं मैं कलाम पढ़ रहा हु और मैं खुद को ही सूना रहा हु , इसी बेफिक्री का नाम है जॉन एलिया।  

ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई

आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई













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