Monday 13 August 2018

तुमसे डर क्यों लगता है ?

तुमसे डर क्यों लगता है ? ये सवाल तुमसे नहीं है, खुद से है।  शायद खुद से इसलिए क्योकि इसका जवाब तुम तो नहीं दोगी इसलिए दारोमदार खुद के कन्धों पे देना होगा।  मौन हर वक़्त तुम्हारा जवाब नहीं होता लेकिन तुम वो भी तो नहीं कहती जो कहना चाहती हो इसलिए खुद से साक्षात्कार ही सही लगता है। तुमसे डर खोने का डर नहीं है , तुमसे इश्क़ पाने के लिए नहीं है।  तुमसे दोस्ती एक वजह नहीं है ना आदत है , ना जूनून भी , बस है , क्यों है कारण क्या है पता नहीं ना मैंने खोजा है ना जरुरत लगती है । तुम्हारी आँखों में भी पाने और खोने की उम्मीद नहीं देखि मैंने।  सुकून लगता है इस माहौल में तुम्हारे साथ बैठना , चाय पीना और ये जानते हुए भी की बिछड़ना नियति तो है लेकिन हमारे रिश्ते में अब इसका कोई महत्व नहीं है। 

लेकिन फिर भी डर लगता है।  डर उन आंखों से नहीं है , उन चाहतों से नहीं है , उन लम्हों से नहीं है जिन्होंने सदियों का दुःख तुम्हारे दामन में बेवक्त लगा दिया। डर तुम्हारे अनजाने मौन का है। तहज़ीब हाफ़ी का एक शेर

मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है। 

ये शेर लगभग उसी दायरे की और सूचित करता है जो मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बीच है।  होनी भी चाहिए , रिश्तों में दुरी सही होती है , मै ही पागल हूँ जो दोस्ती, यारी , आती जाती मोहब्बतों के दरम्यान दुरी मिटाने की कोशिश करता है।  खुसरो कहते थे
साजन हम तुम एक हैं और कहन सुनन को दो 
मन से मन को तोलिये सो दो मन कभऊ ना हो

मेरे लिए हर रिश्ता "दो मन कभऊ  ना हो" है।  मुझे फर्क नहीं पड़ता निभाने वाला क्या सोचता है , मै तो खुसरो का मुरीद हु, ना मानना ज्यादती होगी।  डर इसी बात का लगता है , मन कहीं दो तो नहीं है।  

फुटकर नोट्स 

No comments:

Post a Comment

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...