गरीबी का अब ये इनाम सा लगता है ,
अन्नदाता का तमगा भी इल्जाम सा लगता है।
खेतो के मुंडेरों पे वो बैठा हुआ गिद्ध ,
संसद में बैठा हुआ हुक्काम सा लगता है।
जो खोलता परते है अंधेरो की दिन में ,
अदीबों की गली में बदनाम सा लगता है।
लटकी हुई वो लाश कह गई ये कहानी ,
मोहब्बत का सफर भी नाकाम सा लगता है।
अन्नदाता का तमगा भी इल्जाम सा लगता है।
खेतो के मुंडेरों पे वो बैठा हुआ गिद्ध ,
संसद में बैठा हुआ हुक्काम सा लगता है।
जो खोलता परते है अंधेरो की दिन में ,
अदीबों की गली में बदनाम सा लगता है।
लटकी हुई वो लाश कह गई ये कहानी ,
मोहब्बत का सफर भी नाकाम सा लगता है।
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