जॉन के बारे में लिखने से पहले मै ये स्पष्ट करना चाहूँगा कि मै ना तो कोई शायर हु ना हीं उर्दू का जानकार और किसी भी फलसफे से मेरा कोई ख़ास राबता नही है। लेकिन ये बात भी सच है कि जॉन एलिया को जानने और समझने के लिए उपर्युक्त किसी भी सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है , इसी लिए जॉन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़े और तर्कसंगत समीक्षा करे।
शायर तो
जमाने में
बहुत हुए
, हो भी
रहे है
और सोशल
मीडिया के
इस दौर
में शायरों
की हर
प्रकार की
जमात अपने-अपने कुनबे
को भली
भाँती पाल
पोस भी रही है। जब सब
अच्छा चल
रहा है
तो इतिहास
के पन्नो
में से
एक शायर को
निकाल के
उसके बारे
में विश्लेषण
करना कितना
उचित है? या अगर
बात फलसफे
और उर्दू शायरी के सफर की है तो हर शायर
या उस
लहजे हर
साहित्यकार उसी
एक रास्ते
पे है
शब्दावली बस
अलग अलग
है , फिर खासकर जॉन को उस भीड़ में से निकाल कर आंकना सही है ?जॉन को राजनीतिक दर्शन , खगोल विज्ञान और शास्त्रीय परंपराओं में प्रशिक्षित किया गया था , फिर भी वह कोई फैज अहमद फैज या जोश मलीहाबादी नहीं थे। उनके अशआर उर्दू ,फ़ारसी और हिंदी के शब्दों का मुकम्मल इस्तेमाल थे , वो जुमलों का भी इस्तेमाल करते। हकीकत,वजूद और मौजूदा समस्याओं पे उनकी पैनी नजर थी जो उनके ढेरो कलाम में नजर आता है। लेकिन ना तो वो अहमद नदीम कासमी थे ना अली सरदार जाफरी। जिस व्यक्ति को मानवीय संवेदनाओ में कोई ख़ास रूचि नहीं थी , जो सामजिक मूल्यों को हमेशा दरकिनार करता था ,तो उस व्यक्ति की शायरी में मानव केंद्रित दर्शन कैसे निकलेगा ?तो फिर
जॉन ही
क्यों ? इन
सवालों का
जब जवाब
ढूंढता हु
तो तीन तर्क
है जो
जॉन को
किसी भी
शायर,विचारक
और सूफी
संत से
अलग करते है और जॉन जो तीनो में से मेरे
हिसाब से
स्पष्ट रूप
से कोई
नहीं थे, लेकिन सबसे जुदा अंदाज ही जॉन को तीनो
की मिश्रित अभूतपूर्व कृति
बनाता है।
वो तीन
तर्क है
:जॉन मिजाज
से शायर
थे लेकिन
बाकी किसी
भी शायर
की तरह
उन्होंने गजल
या नज्म की
बारीकियों पे
ज्यादा ध्यान
ना देते
हुए फलसफे
को प्राथमिकता दी। आसान
लहज़ा , साफगोई
, लफ्जो का
जखीरा होते
हुए भी
शेरो में
बोल चाल
की शब्दावली
को प्राथमिकता। गज़ल
की बहरो
के साथ
ऐसी नक्काशी
जिससे गज़लगोई
बातचीत में
बदल जाती
है। उनके
कुछ शेर
जिनका फलसफा
सदियों पुराना है
लेकिन लहजा
केवल जॉन
का।
जहर था
अपने तौर
पे जीना,
कोई एक
था जो
मर गया
जानम।
अब निकल आओ अपने अंदर से
घर में सामान की जरुरत है
उड़ जाते
है धूल
के मानिंद
,
आंधियो पे
सवार थे
हम तो।
अब नहीं
कोई बात
खतरे की
,
अब सभी
को सभी
से खतरा
है। तू है पहलू में फिर तेरी खुशबु ,
हो के
बासी कहां
से आती
है।
दुसरा, जॉन विचारक भी नहीं थे , क्योकि ना तो वो किसी कबीले को मानते थे और ना ही उन्होंने कोई कबीला बनने दिया। हर विचारधारा पे तंज कसा , सवाल पूछे , गालियां दी लेकिन कोई सटीक जवाब कभी नहीं दिया, हालांकि दर्शन उनकी शायरी का एक अहम अंग है लेकिन कभी कभी वो भी उसमे खुद उलझते हुए नजर आते है , या हो सकता है ऐसा ही वो चाहते हो। जॉन को मजाक उड़ाने की बहुत आदत थी , फलसफों में हम अगर उलझते है तो वह एक जॉन का इशारा भी है स्थापित कबीलों के ऊपर। जॉन चाहते थे कि हम आँख बंद के भरोसा ना करे , इसलिए भी उलझा के सोचने पे मजबूर करते थे।
मुझे अब होश आता जा रहा है
खुदा तेरी खुदाई जा रही है।
यूँ जो तकता है आसमान को तू ,
कोई रहता है आसमान में क्या।
तीसरा ,जॉन सूफी तो कतई नहीं थे , लेकिन जीवन शैली के अलावा वो हर वो जलवा रखते थे जो एक सूफी संत रखता है। अब उस पहलू की बात करते है जिसने मुझे प्रेरित किया कि मैं जॉन को रोज़-रोज़ पढ़ु , समझु और नए आयाम पे पहुंचने की कोशिश करू। मेरी नजर में आजतक इस कायनात में कोई ऐसी शख्सियत नहीं हुई है जिसने अपनी बर्बादी का ढिंढोरा खुश हो के पीटा हो और उसी में खुश हो , उसी ढिंढोरे से शायरी निकालना , फलसफा निकालना , और कभी कभी एक अनकहा रूहानी एहसास निकालना जो हर व्यक्ति के लिए बहुत नया और अपना हो। जॉन के समकालीन विचारको ने भी स्थापित सत्ता पे तंज किया , लेकिन सभी बच बच के किया करते थे। जॉन का लहजा और आवारापन ना केवल बेबाक है बल्कि ज्यादा दांव पेंच में ना फंसते हुए सीधा प्रहार करता है। कुछ लोगो के लिए जॉन की व्यवहारिक नाटकीयता उनकी पहचान थी। लोगों की दिलचस्पी उनके शेर कहने के लहज़े में रहती थी। लेकिन मेरे लिए जॉन वही शख्स है जो निराशावादी लगता तो है , लेकिन आशावादियों के खोखलेपन को सरेआम नंगा करता है। जॉन गम के शायर नहीं है , उनका तल्ख़ मिजाज उनकी शायरी में भरपूर दिखता है , लेकिन उसमे निराशा नहीं वरन उनका तजुर्बा और भिन्न फलसफों पे उनकी पकड़ दिखती है।
और तो कुछ नहीं किया मैंने
अपनी हालत तबाह कर ली है।
जो गुजारी ना जा सकी हमसे
हमने वो जिंदगी गुजारी है
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
मैं बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि,
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
जॉन के बारे में रोज लिखा जा रहा है , रोज उनकी बर्बादी का जश्न मन रहा है , रोज नए अंदाज में उनकी सूफियाना शायरी को परोसा जा रहा है। कभी - कभी लगता है कि जॉन जिन आडम्बरो से अपनी शायरी को दूर रखना चाहते थे , उनके मरने के बाद उसी नाकाबिल तौर में उनकी पूरी शख्सियत को ढाला जा रहा है। जॉन दर्शन के विषय है प्रदर्शन के नहीं।
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
जॉन के बारे में रोज लिखा जा रहा है , रोज उनकी बर्बादी का जश्न मन रहा है , रोज नए अंदाज में उनकी सूफियाना शायरी को परोसा जा रहा है। कभी - कभी लगता है कि जॉन जिन आडम्बरो से अपनी शायरी को दूर रखना चाहते थे , उनके मरने के बाद उसी नाकाबिल तौर में उनकी पूरी शख्सियत को ढाला जा रहा है। जॉन दर्शन के विषय है प्रदर्शन के नहीं।
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
साबित हुआ
सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई
तर्क-ए-तअल्लुक़ात
कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई
दीवार जानता
था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई
मैं ख़ुद
ये चाहता हूँ कि हालात हो ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई
ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मेरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
आख़िर मेरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
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