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Thursday, 7 July 2016

ये है एक जब्र इत्तेफ़ाक नही जॉन होना कोई मजाक नही : जॉन एलिया मेरी नज़र मे

जॉन के बारे में लिखने से पहले मै ये स्पष्ट करना चाहूँगा कि मै ना तो कोई शायर हु ना हीं उर्दू का जानकार और किसी भी फलसफे से मेरा कोई ख़ास राबता नही  है।  लेकिन ये बात भी सच है कि जॉन एलिया को जानने और समझने के लिए उपर्युक्त किसी भी सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है , इसी लिए जॉन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़े और तर्कसंगत समीक्षा करे।  

शायर तो जमाने में बहुत हुए , हो भी रहे है और सोशल मीडिया के इस दौर में शायरों की हर प्रकार की जमात अपने-अपने कुनबे को भली भाँती पाल पोस भी रही है। जब सब अच्छा चल रहा है तो इतिहास के पन्नो में से एक शायर को निकाल के उसके बारे में विश्लेषण करना कितना उचित है? या अगर बात फलसफे और उर्दू शायरी के सफर की है तो हर शायर या उस लहजे हर साहित्यकार उसी एक रास्ते पे है शब्दावली बस अलग अलग है , फिर खासकर जॉन को उस भीड़ में से निकाल कर आंकना सही है ?जॉन को राजनीतिक दर्शन , खगोल विज्ञान और शास्त्रीय परंपराओं में प्रशिक्षित किया गया था , फिर भी वह कोई फैज अहमद फैज या जोश मलीहाबादी नहीं थे। उनके अशआर उर्दू ,फ़ारसी और हिंदी के शब्दों का मुकम्मल इस्तेमाल थे , वो जुमलों का भी इस्तेमाल करते। हकीकत,वजूद और मौजूदा समस्याओं पे उनकी पैनी नजर थी जो उनके ढेरो कलाम में  नजर आता है। लेकिन ना तो वो अहमद नदीम कासमी थे ना अली सरदार जाफरी।  जिस व्यक्ति को मानवीय संवेदनाओ में कोई ख़ास रूचि नहीं थी , जो सामजिक मूल्यों को हमेशा दरकिनार करता था ,तो उस व्यक्ति की शायरी में मानव केंद्रित दर्शन कैसे निकलेगा ?तो फिर जॉन ही क्यों ? इन सवालों का जब जवाब ढूंढता हु तो तीन तर्क है जो जॉन को किसी भी शायर,विचारक और सूफी संत से अलग करते  है और जॉन जो तीनो में से मेरे हिसाब से स्पष्ट रूप से कोई नहीं थे, लेकिन सबसे जुदा अंदाज ही जॉन को तीनो की  मिश्रित अभूतपूर्व  कृति बनाता  है।  वो तीन तर्क है :जॉन मिजाज से शायर थे लेकिन बाकी किसी भी शायर की तरह उन्होंने गजल या नज्म की बारीकियों पे ज्यादा ध्यान ना देते हुए फलसफे को प्राथमिकता दी। आसान लहज़ा , साफगोई , लफ्जो का जखीरा होते हुए भी शेरो में बोल चाल की शब्दावली को प्राथमिकता।  गज़ल की बहरो के साथ ऐसी नक्काशी जिससे गज़लगोई बातचीत में बदल जाती है। उनके कुछ शेर जिनका फलसफा सदियों पुराना है लेकिन लहजा केवल जॉन का।  

जहर था अपने तौर पे जीना, 
कोई एक था जो मर गया जानम। 

अब निकल आओ अपने अंदर से
घर में सामान की जरुरत है

उड़ जाते है धूल के मानिंद ,

आंधियो पे सवार थे हम तो।  

अब नहीं कोई बात खतरे की ,
अब सभी को सभी से खतरा है।  

तू है पहलू में फिर तेरी खुशबु ,
हो के बासी कहां से आती है।  

दुसरा, जॉन विचारक भी नहीं थे , क्योकि ना तो वो किसी कबीले को मानते थे और ना ही उन्होंने कोई कबीला बनने दिया। हर विचारधारा पे तंज कसा , सवाल पूछे , गालियां दी लेकिन कोई सटीक जवाब कभी नहीं दिया, हालांकि दर्शन उनकी शायरी का एक अहम अंग है लेकिन कभी कभी वो भी उसमे खुद उलझते हुए नजर आते है , या हो सकता है ऐसा ही वो चाहते हो। जॉन को मजाक उड़ाने की बहुत आदत थी , फलसफों में हम अगर उलझते है तो वह एक जॉन का इशारा भी है स्थापित कबीलों के ऊपर। जॉन चाहते थे कि हम आँख बंद के भरोसा ना करे , इसलिए भी उलझा के सोचने पे मजबूर करते थे।

मुझे अब होश आता जा रहा है
खुदा तेरी खुदाई जा रही है।

यूँ जो तकता है आसमान को तू ,
कोई रहता है आसमान में क्या।

तीसरा ,जॉन सूफी तो कतई नहीं थे , लेकिन जीवन शैली के अलावा वो हर वो जलवा रखते थे जो एक सूफी संत रखता है। अब उस पहलू की बात करते है जिसने मुझे प्रेरित किया कि मैं जॉन को रोज़-रोज़ पढ़ु , समझु और नए आयाम पे पहुंचने की कोशिश करू।  मेरी नजर में आजतक इस कायनात में कोई ऐसी शख्सियत नहीं हुई है जिसने अपनी बर्बादी का ढिंढोरा खुश हो के पीटा हो और उसी में खुश हो , उसी ढिंढोरे से शायरी निकालना , फलसफा निकालना , और कभी कभी एक अनकहा रूहानी एहसास निकालना जो हर व्यक्ति के लिए बहुत नया और अपना हो। जॉन के समकालीन  विचारको ने भी स्थापित सत्ता पे तंज किया , लेकिन सभी बच बच के किया करते थे। जॉन का लहजा और आवारापन ना केवल बेबाक है बल्कि ज्यादा दांव पेंच में ना फंसते हुए सीधा प्रहार करता है।  कुछ लोगो के लिए जॉन की व्यवहारिक नाटकीयता उनकी पहचान थी।  लोगों की दिलचस्पी उनके शेर कहने के लहज़े में रहती थी।  लेकिन मेरे लिए जॉन वही शख्स है जो निराशावादी लगता तो है , लेकिन आशावादियों के खोखलेपन को सरेआम नंगा करता है।  जॉन गम के शायर नहीं है , उनका तल्ख़ मिजाज उनकी शायरी में भरपूर दिखता है , लेकिन उसमे निराशा नहीं वरन उनका तजुर्बा और भिन्न फलसफों पे उनकी पकड़ दिखती है।  

और तो कुछ नहीं किया मैंने 
अपनी हालत तबाह  कर ली है।  

जो गुजारी ना जा सकी हमसे 
हमने वो जिंदगी गुजारी है 

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

मैं बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि,
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

जॉन के बारे में रोज लिखा जा रहा है , रोज उनकी बर्बादी का जश्न मन रहा है , रोज नए अंदाज में उनकी सूफियाना शायरी को परोसा जा रहा है। कभी - कभी लगता है कि जॉन जिन आडम्बरो से अपनी शायरी को दूर रखना चाहते थे , उनके मरने के बाद उसी नाकाबिल तौर में उनकी पूरी शख्सियत को ढाला जा रहा है।  जॉन दर्शन के विषय है प्रदर्शन के नहीं।  

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई

साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई

तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई

दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई

मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हो ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई

ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई


हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मेरे  मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई



Tuesday, 5 July 2016

तुम्हारे दर से जब गुजरते है

तुम्हारे दर से जब गुजरते है 
हर कदम पे कुछ बिखरते है 

खिज़ा की आहट और एक गुल 
हम भी रोज युहीं सवरते है 

सुबह वाइज़ पे जिंदगी है 
शाम साथ ले के मरते है 

थकन रूह में है और ना जाने 
जिस्म क्यों करवट बदलते है 




Friday, 31 July 2015

एक शनिवार, मै और परवीन शाकिर

परवीन शाकिर  का नाम मुझे लगता है , हर उस  दिल में ताउम्र रहेगा जिसने कभी भी मोहब्बत की होगी और उस दौरान प्रेम पत्र में अपने अहसासो को और प्रखर बनाने के लिए एक दो मिसरे लिखे होंगे।  परवीन शाकिर उस नर्म नाजुक अहसास का नाम है जो ना तो उनसे पहले और ना तो उनके बाद अभी तक दिखी है उर्दू शायरी में।  हर मिसरा मन करता है गुनगुना ले , हर गजल, गीत, नज्म इतनी सादगी से लिखी हुई है  जैसे लगता है  हर लफ्ज आपस में गुफ्तगू कर रहे हो।  पूरा फ़न प्रेम से ओत - प्रोत , जिसमे कोई बनावट नहीं इसलिए वो अपने व्यक्तिगत अनुभूति के इतने करीब लगती है मानो वो शेर परवीन शाकिर  नहीं हम कह रहे है।

प्रेम में स्त्री की व्यथा हालांकि परवीन शाकिर  का केंन्द्रीय विषय रहा है लेकिन मेरा मानना है की प्रेम की मौलिक परिभाषा में लिंग भेद नहीं है  जिस वजह से उनके मिसरो का मूल भाव प्रेम है ना की  केवल स्त्री

"  कह रहा है किसी मौसम की कहानी अब तक 
जिस्म बरसात में भीगे हुए जंगल की तरह "
 ये भावनाए केवल स्त्री प्रधान तो नहीं हो सकती।  ये अभिव्यक्ति स्त्री पुरुष दोनों के लिए उतनी ही मौलिक है  जितना परवीन शाकिर  की कलम की स्याही में मोहब्बत।  ये वो दौर था जब आधुनिक उर्दू शायरी में खासकर पाकिस्तान में हिन्दू से छुआछूत कुछ कम हो गई थी।  हिंदी के अनेकानेक देशज शब्द आपको परवीन शाकिर  की नज्मे , गजलो में मिल जाएंगे।  यही कारण है की परवीन शाकिर किसी पारम्परिक शायरा की नक़ल ना बनते हुए , खुद का एक नया अंदाज तथा आयाम कायम कर पाई जो जनजीवन तथा जनमानस के काफी करीब है। 
रुपहली चांदनी में 
या कि फिर तपती दुपहरी में 
बहुत गहरे खयालो में 
कि बेहद सरसरी धुन में 
तुम्हारी जिंदगी में 
मै कहां पर हुँ।  

मोहब्बत के सफर के हर अंदाज को बड़े ही सलीके से व्यक्त किया हे , जहा कटाक्ष भी करना होता है तो उनका लहजा बड़ा ही कातिलाना होता है।  समाज पर व्यंंग करने के उनके लहजे के पीछे मोहब्बत का दर्द और शायरी की नक्काशी दोनों मौजूद रहती है।  

सुनते है क़ीमत तुम्हारी लग रही है आजकल 
सबसे अच्छे दाम किसके है ये बतलाना हमें 
इसलिए ये कह सकते है की परवीन शाकिर की शायरी में केवल मोहब्बत की कशिश और प्रेमियों के वियोग का ग़म  नहीं बल्कि हर वो अहसास मौजूद जो  किसी भी प्रकार से मोहब्बत को व्यथित करता है।  

लहू ज़मने से पहले खु बहा दे 
यहाँ इंसाफ से कातिल बड़ा हे 
परवीन शाकिर उस शायरा का नाम है जो  हर उस आयाम को अपने मिसरों में जगह देती है जिसका कही से भी ताल्लुक मोहब्बत से हो।  अगर मोहब्बत सफर है तो एक राहगीर की तरह परवीन शाकिर  ने बड़ी खूबसूरती से इस सफर के हर पड़ाव को बयां किया है।  इसमे माशुका का अल्ल्हड़पन भी है , समाज का प्रेम के प्रति नजरिया भी , और एकांतवास भी।  

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...