प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो ..... लता मंगेशकर, हेमंत कुमार और गुलज़ार साहब ने एक गाना नहीं बल्कि एक फलसफा दे दिया। अक्सर सोचता हूँ रिश्तों के बारे में, सभी सोचते होंगे सबका अपना नजरिया है , दोस्ती प्यार , रिश्तेदार , बेस्ट फ्रेंड और ना जाने कितने सारे नामी बेनामी मोहब्बत वाले रिश्ते। कभी एक राह चलते यात्री से तो कभी ट्रेन में बैठे सामने वाली बर्थ पर एक अनजान सी शक्सियात जिसका नंबर सेव करने में वक्त नहीं लगता। कहीं ना कहीं इश्क़ तो है ही। प्रेम की व्याख्या के ऊपर ना जाने कितने ही दर्शन बने हुए है , कबीर, सुर, मीरा, जायसी, खुसरो को सुनिए एक नई तस्वीर उभरेगी प्रेम की। प्रेम कथाओं में प्रेम कभी व्यक्तिगत हो जाता है कभी सार्वभौमिक , लेकिन होता है प्रेम ही। मेरा मानना है , प्रेम एक स्वभाव है , चरित्र की विशेषता। जैसे कुछ लक्षण हमारे व्यक्तित्व को परिभाषित करते है वैसे ही प्रेम एक लक्षण होता है। हालांकि मेरा ये कहना कि अगर आप किसी एक से प्रेम करेंगे तो वो लक्षण का हिस्सा और आपकी व्यक्तित्वा का हिस्सा तभी हो सकता है जब आप सभी से प्रेम करते होंगे । लक्षण में यदि और यद्यपि नहीं होता। प्रेम में मिलावट संभव नहीं है। मै जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ वो हो सकता है तथ्य आधारित या व्यावहारिक नहीं है , लेकिन जिसको हम प्रेम कहते है वो भी तो प्रेम नहीं है। बस प्रकट करने के लिए एक संज्ञा चाहिए तो हम प्रेम बोल देते है।
ये लेख मेरे लिए एक आवश्कता थी। कुछ बातें मेरे प्रेम के सन्दर्भ में। नीरज कहते थे - "प्रेम को अमरत्व देने के लिए आदमी स्वयं को सदा छलता रहा " हाँ मै मानता हूँ नीरज के इस कथन को। कभी - कभी स्थायी बनाने के लिए,स्थिरता देने के लिए रिश्तों में हम इतना खाद संभल दे देते है कि पौधे की व्यापकता को देखने के लिए वक्त नहीं बच पाता। जो मेरे तुम्हारे पास है इक्षिता वो तो यही दो तीन लम्हें है जिनको मानों तो सादिया है , ना मानो तो दो पल। बाकी यादों का है , या तो उन्ही दो लम्हो की व्यापकता में प्रेम ढूंढो या स्थिरता देने की यात्रा में चल पड़ो। ये यात्रा ना केवल थकाने वाली है बल्कि अंत में वही दो लम्हे मिलने वाले है यकीं करो।
क्या प्रेम हमारी जरुरत है ? यहाँ बचने के लिए मैंने 'हमारी' का प्रयोग किया है , जवाब मेरा ही होगा , तुम्हे ये जहां फिट लगे कर लेना। प्रेम मेरे लिए कोई वस्तु नहीं थी, इसलिए ये किस पायदान पे किसके लिए है या होगा पता नहीं। तुम्हारी संख्या क्या है , तुम किस पायदान पे हो इस से बहस क्या है, बहस बस उन्ही दो लम्हों के लिए है दो व्यक्तियों के लिए , चाहे दो दोस्त हो या प्रेमी। उन्ही दो लम्हों में ताकत होती है पूरी कायनात को मनमुताबिक शक्ल देने की। मेरे लिए प्रेम वही दो लम्हा है। ना कोई नाम , ना रिश्ता ना वो इंतज़ार जो किया करता था। प्रेम कभी कभी मेरे लिए एक कविता है, दो पल में बुनी , दो पल में पढ़ी -समझी गई और फिर बन गई उसी दो पल का हिंसा। पुराने ज़माने में जब कवि लिखते थे तो वे ईश्वर से या कला की देवियों (अलग – अलग सभ्यताओं में अपनी परम्परा के अनुसार ) से संवाद करते हुए अपनी कविता लिखते थे. बाद में ऐसा हुआ वे कविताएँ संवाद तो रही लेकिन उसमे कई और कई लोग जुड़ गए, जैसे सम्बन्धी, प्रेमी, गुरु, समाज या खुद कवि का अदर सेल्फ (अल्टर इगो), आदि. फिर भी विराट सत्ता जिसे आप आम भाषा में ईश्वर कह लें और प्रेमी को सम्बंधित कविताएँ अधिक रही. अगर कविता कवि की ध्वनि है तो किसी को संबोधित होगी. जो उसे प्रिय होगा, जो करीब होगा कवि उसे ही संबोधित करेगा, इस हिसाब से प्रेम एक सूत्र है, जो जीवन भर में मिले कई अनुभव एक धागे में पिरोने में मदद करता है. लेकिन कविताओं में सिर्फ प्रेम नहीं होता बल्कि समकालीन समाज, राजनीति और दर्शन से जुडी कई बातें होती हैं. मुख्यतः एक अनुभव जो स्वयं जीवन जितना बड़ा है, होता है। ये अनुभव और कुछ नहीं वही दो पल है। मेरे लिए पूरी कायनात वही दो पल है जो मैंने तुम्हारे साथ बिताए है। वही प्रेम भी है , रिश्ता भी और सत्य भी।
स्मृतियों पे प्रेम और रिश्ते को ज़िंदा रखना कठिन होता है।
सौरव कुमार सिन्हा
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