Friday, 10 April 2020

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था
आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल
रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया
मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले को।
अब दालान से नहीं दिखता है और ना ही दिखते है कई लोग
जो इन रंग बिरंगे पत्थरों के ना होने पर दिखते थे

लेकिन कुछ लोग मुझे याद है
उसी शिव मंदिर के बगल की बस्ती से
अक्सर आया करते थे
जब दादी ज़िंदा थी
दादी को याद थी उस बस्ती के एक एक मकान की कहानी
और उसमे रहने वाले हर शख्स की शक्ल और सीरत
कहने को नाम मौलवी साहब था
काम कम्पाउंडर का करते थे
दादी के कहने पर बुला लाया करता था ,
साइकिल से , गुजरते हुए उस शिव मंदिर से
याद था मुझे उनका घर , उनके पडोसी
उनके उठने का वक्त और ये कि
चाय में वो चीनी कम पीते थे।

लम्बी दाढ़ी, ऊँ चढ़ा पायजामा
और सर पे एक सफ़ेद टोपी
साइकिल पे एक अदना सा थैला
जिसमे थे कुछ नुस्खे
जिनसे दादी ठीक हो जाया करती थी
उनकी साइकिल की आवाज भर से
निकल आते थे दादा और दादी
धुंधली होती रैशनी में भी दिख जाता था
एक स्वस्थ कल , और इस तरह दालान में
चौकी के बगल में बिछ जाती थी कुर्सियां
और चाय  बनादो कि आवाज पहुंच जाती थी रसोई तक

दादी की आँखों में देखा था मैंने
भरोसा
और दादा का हर बात पर उनको समझाना
कि कर  देंगे मौलवी साहब सब ठीक


मौलवी साहब ना हुए
 जादूगर हो गए
और उनका वो थैला
दुनिया के तमाम मुश्किलों का हल
क्यों करती है दादी इनपर इतना भरोसा

इस तरह  दादी ठीक हो जाया करती थी
फिर लग जाती थी बीनने साग
या राह देखने की उसी शिव मंदिर की तरफ
से कोई और भी आए।

दादी नहीं रही अब , दादा भी।
सोंचता हूँ , डरता भी
कि  बीमार  तो  होती होंगी अब भी वो
दादा फिर चिंतित हो जाते होंगे
टहलने लग जाते होंगे तेज पांव से दालान में
आँखे लग जाती होंगी किसी शिव मंदिर की और

उम्मीद  है अल्लाह मियाँ से इजाज़त लेकर
बैकुंठ में जाते होंगे दादी और दादा को देखने
मौलवी साहब , वहा भी कोई शिव मंदिर होगा
वही से गुजरकर



Thursday, 27 September 2018

बहुत फायदे है इस शोर के

मै जानता हु शोर बहुत है
इतना ज्यादा कि
तुम्हारी आवाज़ भी तुम तक
नहीं पहुंच रही
तुम चाहते भी यही हो
और तुम मानते हो कि
ये ज़रुरी भी नहीं।
फिर विरोध करते है ?
उस शोर का ?
लेकिन ये तो वही शोर है
ऐसी आवाजों से बना हुआ
शोर जो मुँह से बोला तो जाता है
लेकिन कान तक पहुंचने के लिए नहीं
केवल शोर पैदा करने के लिए
जैसे तुम्हारी आवाज़ जो तुम
चाहते हो तुम्हारे या किसी की कानों
पे ना पहुंचे बस शोर बन के रहे
बहुत फायदे है इस शोर के



Monday, 24 September 2018

Sustainable Tourism : Only way to promote and sustain tourism Industry in India

Sustainable tourism is the concept of visiting a place as a tourist and trying to make a positive impact on the environment, society, and economy. ( Source : Wikipedia ). 


PC/Source  ( BBC )

The pic is of Mount Everest, Yes, if we can clean the toughest and highest peak of the world then why not other places. We are irresponsible because we have not been able to visualize the impact of irregularities of waste management and our laid back attitude towards a particular habitat.  

As a traveler/tourist are you ?


  • Throwing plastic bottles / wrappers / other plastic materials on roads/remote places.
  • Extensiveness using toiletries.
  • Regularly washing cloths on mountain side hotels/inns as we do at our homes
  • Not refiling water bottles
  • Overlooking small irregularities of throwing small plastic wrappers such as of a chocolate.  
  • Demanding luxury even at remotest villages of the country. ( This creates market pressure of supply)



I have been a traveler all across my life. I can remember last two decades when I started visiting places across length and breadth of this sub continent called India. Born and brought up in the Gangatic plains, started professional studies in old still young national capital Delhi. Done my B.Tech around Sahyadries, near to Goa - Dharwad. Worked in Bangalore and now semi settled in Delhi . Like me many people must have seen places dying. I have seen and experienced personally what "Development" has done to hill stations of India. Kodaikanal, Ooty, Nainital, Shimla, Darjeeling and list goes on. Even Leh - Laddakh, Spiti and entire Kangra Valley is no more a hill station for me but a place where
hashtag

garbage is dumped from across India. Believe me government plays a very small role in maintaining these places, Its we the travelers ( not tourists ) who need to take responsibility in saving our tourist destinations. Development ensures every body can visit every place across the nation but there are certain moral responsibility towards particular habitat that we need to follow and teach people who don't know. When I was in my last days of Jharkhand visit this year May I read a survey and the survey says, people are not happy with the climate change in Ranchi, Hazaribagh but they have done nothing to stop it. Same goes with the entire country. Still Jharkhand has 28 % of the forest cover area and I would urge people of Jharkhand to maintain it atleast. 

Now there is no lake, Was crossing through my old apartment near IBLURU lake in Bangalore after a gap of 36 months this June and suddenly I  realized there used to be a lake and now, its no more.  Urbanization and creation of concrete forest will give us nothing. I am sorry to say but garden city is no more a garden city. The low voting turn around, garbage problem, lack of "know how" towards sustainable development. Shouldn't we expect more from techno - well educated crowd ?.

The list goes on, wherever I go I see people, travelers least bothered about sustainability of the place. My recent visit to Parashar lake was a question on my responsibility when locals were afraid after seeing the bulk coming to the places this season.




Why are locals afraid? Only because of habits that a common Indian traveler possess. We don't want to come out of our comfort zone. We still want all the facilities in each and every habitat and conditions. The local area gets impacted by market pressure and theory of demand and supply. They start creating. Same kind of market as we have in urban areas.

( Source : Maverick Times) 

Under serious market pressure , even the remotest villages of India are providing all the plastic packed materials to tourists and travelers. Toiletries, packed bottled water, cold drinks and chips are main source of garbage. We can't blame locales as they are under huge market pressure by the demand. Only way to reduce at this time is to reduce demand of such items in tourist places and create demand for sustainable local products / food and start refilling bottles. This is a habit a traveler should have, a tourist should develop and a local to start following since day one. Days are very near when we'll loose many tourist destinations across India and future generation will enjoy the beauty only in pictures. 

Steps required to start this sustainable tourism in India. 
  • Training local hospitality partners 
  • Start a nation wide campaign with the help of bloggers and influences to  create and maintain a sustainable demand and supply market. 
  • All tour guides must follow strict rules.
  • Travel companies like other do's and don'ts publish some strict rules regarding sustainable tourism. 
  • Start avoiding packed bottled water and create a habit of refilling at least in mountains



Looking to create a team for this campaign. I am positive of creating a team for this.











Monday, 17 September 2018

स्मृतियों पे प्रेम और रिश्ते को ज़िंदा रखना कठिन होता है।

प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो  ..... लता मंगेशकर, हेमंत कुमार और गुलज़ार साहब ने एक गाना नहीं बल्कि एक फलसफा दे दिया।  अक्सर सोचता हूँ रिश्तों के बारे में, सभी सोचते होंगे सबका अपना नजरिया है , दोस्ती प्यार , रिश्तेदार , बेस्ट फ्रेंड और ना जाने कितने सारे नामी बेनामी मोहब्बत वाले रिश्ते।  कभी एक राह चलते यात्री से तो कभी ट्रेन में बैठे सामने वाली बर्थ पर एक अनजान सी शक्सियात जिसका नंबर सेव करने में वक्त नहीं लगता।  कहीं ना कहीं इश्क़ तो है ही। प्रेम की व्याख्या के ऊपर ना जाने कितने ही दर्शन बने हुए है , कबीर, सुर, मीरा, जायसी, खुसरो को सुनिए एक नई  तस्वीर उभरेगी प्रेम की। प्रेम कथाओं में प्रेम कभी व्यक्तिगत हो जाता है कभी सार्वभौमिक , लेकिन होता है प्रेम ही।  मेरा मानना है , प्रेम एक स्वभाव है , चरित्र की विशेषता।  जैसे कुछ लक्षण हमारे व्यक्तित्व को परिभाषित करते है वैसे ही प्रेम एक लक्षण होता है।  हालांकि मेरा ये कहना कि अगर आप किसी एक से प्रेम करेंगे तो वो लक्षण का हिस्सा और आपकी व्यक्तित्वा का हिस्सा तभी हो सकता है जब  आप सभी से प्रेम करते होंगे ।  लक्षण में यदि और यद्यपि नहीं होता।  प्रेम में मिलावट संभव नहीं है। मै जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ वो हो सकता है तथ्य आधारित या व्यावहारिक नहीं है , लेकिन जिसको हम प्रेम कहते है वो भी तो प्रेम नहीं है।  बस प्रकट करने के लिए एक संज्ञा चाहिए तो हम प्रेम बोल देते है।

ये लेख मेरे लिए एक आवश्कता थी।  कुछ बातें मेरे प्रेम के सन्दर्भ में।  नीरज कहते थे - "प्रेम को अमरत्व देने के लिए आदमी स्वयं को सदा छलता रहा " हाँ मै  मानता हूँ नीरज के इस कथन को। कभी - कभी स्थायी बनाने के लिए,स्थिरता देने के लिए रिश्तों में हम इतना खाद संभल दे देते है कि पौधे की व्यापकता को देखने के लिए वक्त नहीं बच पाता। जो मेरे तुम्हारे पास है इक्षिता  वो तो यही दो तीन लम्हें है जिनको मानों तो सादिया है , ना मानो तो दो पल।  बाकी  यादों का है , या तो उन्ही दो लम्हो की व्यापकता में प्रेम ढूंढो या स्थिरता देने की यात्रा में चल पड़ो।  ये यात्रा ना केवल थकाने वाली है बल्कि अंत में वही दो लम्हे मिलने वाले है यकीं करो।

क्या प्रेम हमारी जरुरत  है ? यहाँ बचने के लिए मैंने 'हमारी' का प्रयोग किया है , जवाब मेरा ही होगा , तुम्हे ये जहां फिट लगे कर लेना।  प्रेम मेरे लिए कोई वस्तु नहीं थी, इसलिए ये किस पायदान पे किसके लिए है या होगा पता नहीं।  तुम्हारी संख्या क्या है , तुम किस पायदान पे हो इस से बहस क्या है, बहस बस उन्ही दो लम्हों के लिए है दो व्यक्तियों के लिए , चाहे दो दोस्त हो या प्रेमी। उन्ही दो लम्हों में ताकत होती है पूरी कायनात को मनमुताबिक शक्ल देने की। मेरे लिए प्रेम वही दो लम्हा है।  ना कोई नाम , ना रिश्ता ना वो इंतज़ार जो किया करता था। प्रेम कभी कभी मेरे लिए एक कविता है, दो पल में बुनी , दो पल में पढ़ी -समझी  गई और फिर बन गई उसी दो पल का हिंसा। पुराने ज़माने में जब कवि लिखते थे तो वे ईश्वर से या कला की देवियों (अलग – अलग सभ्यताओं में अपनी परम्परा के अनुसार ) से संवाद करते हुए अपनी कविता लिखते थे. बाद में ऐसा हुआ वे कविताएँ संवाद तो रही लेकिन उसमे कई और कई लोग जुड़ गए, जैसे सम्बन्धी, प्रेमी, गुरु, समाज या खुद कवि का अदर सेल्फ (अल्टर इगो), आदि. फिर भी विराट सत्ता जिसे आप आम भाषा में ईश्वर कह लें और प्रेमी को सम्बंधित कविताएँ अधिक रही. अगर कविता कवि की ध्वनि है तो किसी को संबोधित होगी. जो उसे प्रिय होगा, जो करीब होगा कवि उसे ही संबोधित करेगा, इस हिसाब से  प्रेम एक सूत्र है, जो जीवन भर में मिले कई अनुभव एक धागे में पिरोने में मदद करता है. लेकिन कविताओं में सिर्फ प्रेम नहीं होता  बल्कि समकालीन समाज, राजनीति और दर्शन से जुडी कई बातें होती हैं. मुख्यतः एक अनुभव जो स्वयं जीवन जितना बड़ा है, होता है।  ये अनुभव और कुछ नहीं वही दो पल है। मेरे लिए पूरी कायनात वही दो पल है जो मैंने तुम्हारे साथ बिताए है।  वही प्रेम भी है , रिश्ता भी और सत्य भी। 

स्मृतियों पे प्रेम और रिश्ते को ज़िंदा रखना कठिन होता है।   

सौरव कुमार सिन्हा 

Wednesday, 12 September 2018

घुमक्कड़ों की टोली पहुंची मुक्तेश्वर ( 8 से 10 सितम्बर 2018 )

घुमक्कड़ों की टोली पहुंची मुक्तेश्वर ( 8 से 10 सितम्बर 2018 )

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वो बंजारा भी जीने का अजब अंदाज रखता है
जो इतना दर-बदर होते हुए भी बेघर नहीं लगता  

नईम अख्तर बुरहानपुरी साहब का ये शेर शायद खुद में काफी है नीचे लगे फोटो की तर्जुमानी के लिए। हर एक यात्रा मेरे लिए हमेशा एक नई किताब की तरह होती है जिसके हर पन्ने में  अनुभवों का भण्डार होता है शब्दों के आगे पीछे और बीच में ना जाने कितने किस्से छुपे होते है। वैसे ही एक नई किताब सामने आई मुक्तेश्वर यात्रा जो उत्तराखंड के नैनीताल जिले में कुमाऊँ की पहाडियों में २२८६ मीटर (७५०० फीट) की ऊँचाई पर स्थित है।मौक़ा दस्तूर और प्रबंध का सारा जिम्मा का था हालांकि पहली मुलाक़ात में ही मेहमानी और मेजबानी की दूरिया मिट गई।  नए दोस्त , गीतों और गजलों से भरी गुलाबी ठण्ड के बीच महफ़िलें , साथियो के अनुभव और ना जाने क्या क्या। कुछ साथियों का परिचय देना जरुरी है , निशांत एक वीडियो ब्लौगर है और भारत भ्रमण कर चुका है। नीलिशा बिजनौर से आई थी और पकिया घुमक्कड़ है। प्रीतम और आर्का दास पश्चिम बंगाल का नेतृत्व कर रहे थी , प्रीतम ने एवरेस्ट बेस कैम्प की यात्रा इस साल।  इसी बेस कैम्प को जॉनी ने भी कवर कर रखा है और वो हरियाणा से है। अवंतिका दिल्ली से थी और यात्रा का जूनून उनके अनुभवों में झलकता है।  साहिल के अनुभव दिल को छू गए , सतत पर्यटन के लिए वो काफी काम कर रहे है और आप उनकी यात्राओं के बारे में ghoomakad.in से जान सकते है।  मेजबानी का जिम्मा Club ten pine lodge और खास कर प्रजापति जी और आशीष के कंधे पे था।  मोहित स्वभाव से अनुभवी और हल्द्वानी का प्रतिनिधित्व  कर रहे थे। आकाश इटावा से है और उनकी चुलबुली हरकतों ने माहौल को स्वस्थ बना रखा। जॉय से पहले भी  दिल्ली के कई इवेंट्स में मुलाकात हो रखी थी और उनका अनुभव "फ़ूड ब्लॉगिंग " के क्षेत्र में काफी अच्छा है।  

भालूगढ़ जलप्रपात और मुक्तेश्वर मठ की यात्रा अविस्मरणीय रही।  लेकिन यात्रा के अलावा जो बात पुरे दौरे को यादगार बनाती है वो है Club 10 Pine Lodge और इस होटल के मालिक धीरज जी की मेहमानवाज़ी। देश के लगभग सभी हिस्सों को  घुमा है। अगर किसी चीज की तलाश एक यात्री को होती है तो वो होता है गर्मजोशी से ओत प्रोत करने वाली मेहमानवाज़ी। 

इस यात्रा की शुरुआत दिल्ली से हुई और हम NH-24 से होते हुए गढ़ मुक्तेश्वर , मुरादाबाद ,हल्द्वानी पार करते हुए मुक्तेश्वर पहुंचे। रास्ते में एक दूसरे के अनुभवों को सुनना बहुत आनंददायक था।  एक यात्री आपको बैठे बैठे पूरी दुनिया की सच्ची सैर करा सकता है , और हम तो १२ थे।  Club 10 Pine Lodge को जिस बारीकी और मोहब्बत से बनाया गया है वो आपको मोहित कर लेगा। इसी मनमोहक फ़ज़ा के बीच रात को महफ़िलों का जो लुत्फ़ आया उसपर पूरी किताब लिखी जा सकती है। गीता दत्त से ले कर आतिफ तक का सफर हम सभी यात्रियों ने मिल कर लिया।  हमारे सुर हर एक शख्सियत के अनुभवों के तान पर थे। Club 10 Pine lodge के बारे में अगर आपको और जानना है तो आप नीचे दिए लिंक्स पे जा  सकते है।  







''सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?''

दुनिया में मनुष्‍य-जन्‍म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी और मनस्वी तरुण-तरुणियों को इस अवसर से हाथ नहीं धोना चाहिए। कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ो! संसार तुम्‍हारे स्वागत के लिए बेकरार है।









Monday, 20 August 2018

टाइम पास नोट्स

उस रात कोई एक शुक्राणु टकरा गया था प्रकृति के नियमानुसार मादा के किसी अंडे से और जन्म मरण की प्रक्रिया शुरू हो गई , नियति लिख दी गई , भाग्य मढ़  दिया गया, भविष्य गुंथा जाने लगा।  लेकिन किसका? प्रकृति और पुरुष दोनों नहीं जानते थे कि वो "हादसा" ( आप उसे घटना भी कह  सकते है ) जन्म देगा "मै "  को जो २०१८ में ये लेख रहा होऊंगा। नियति सिद्ध नहीं होती लेकिन आज "मै " एक सत्य है और उसके अलावा सब एक घटना है।  होने की प्रक्रिया के साथ होता गया हादसा।  हर घटना को हम नाम देते गए और जुड़ते गए घटनाओं को , दूर होते गए एक मात्र सत्य "मै " से।  तुम भी एक घटना हो जैसे  एक घटना है शुक्राणुओं का टकराना और  बना देना किसी को माता किसी को पिता और तुम्हे मेरा इश्क।  सत्य तुम्हारा "मै " है और मेरा "मै " तो बस बातचीत हो दोनों सत्य के बीच।  सत्य को सत्य से जोड़ो तो सत्य ही बनता है , थोड़ा भी झूट हो तो सत्य सत्य नहीं रहता , एक हादसा हो जाता है , एक घटना हो जाती है।  मेरी समझ से सत्य को सत्य से जोड़ना ही प्रेम है , इबादत है पूजा  है।  किसी का शेर है

जिस्म से रूह तक जाए तो हकीकत है इश्क,
और रूह से रूह तक जाए तो इबादत है इश्क़।

यहां जिस्म एक माध्यम है लेकिन अगर रूह तक जाए तभी वी सत्य है अथवा घटना।  तुम समझ रही हो ना ? घटना से अपने आप को मत जोड़ो सत्य ही असली नियति है उसकी खोज जारी रखो।

Monday, 13 August 2018

तुमसे डर क्यों लगता है ?

तुमसे डर क्यों लगता है ? ये सवाल तुमसे नहीं है, खुद से है।  शायद खुद से इसलिए क्योकि इसका जवाब तुम तो नहीं दोगी इसलिए दारोमदार खुद के कन्धों पे देना होगा।  मौन हर वक़्त तुम्हारा जवाब नहीं होता लेकिन तुम वो भी तो नहीं कहती जो कहना चाहती हो इसलिए खुद से साक्षात्कार ही सही लगता है। तुमसे डर खोने का डर नहीं है , तुमसे इश्क़ पाने के लिए नहीं है।  तुमसे दोस्ती एक वजह नहीं है ना आदत है , ना जूनून भी , बस है , क्यों है कारण क्या है पता नहीं ना मैंने खोजा है ना जरुरत लगती है । तुम्हारी आँखों में भी पाने और खोने की उम्मीद नहीं देखि मैंने।  सुकून लगता है इस माहौल में तुम्हारे साथ बैठना , चाय पीना और ये जानते हुए भी की बिछड़ना नियति तो है लेकिन हमारे रिश्ते में अब इसका कोई महत्व नहीं है। 

लेकिन फिर भी डर लगता है।  डर उन आंखों से नहीं है , उन चाहतों से नहीं है , उन लम्हों से नहीं है जिन्होंने सदियों का दुःख तुम्हारे दामन में बेवक्त लगा दिया। डर तुम्हारे अनजाने मौन का है। तहज़ीब हाफ़ी का एक शेर

मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है। 

ये शेर लगभग उसी दायरे की और सूचित करता है जो मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बीच है।  होनी भी चाहिए , रिश्तों में दुरी सही होती है , मै ही पागल हूँ जो दोस्ती, यारी , आती जाती मोहब्बतों के दरम्यान दुरी मिटाने की कोशिश करता है।  खुसरो कहते थे
साजन हम तुम एक हैं और कहन सुनन को दो 
मन से मन को तोलिये सो दो मन कभऊ ना हो

मेरे लिए हर रिश्ता "दो मन कभऊ  ना हो" है।  मुझे फर्क नहीं पड़ता निभाने वाला क्या सोचता है , मै तो खुसरो का मुरीद हु, ना मानना ज्यादती होगी।  डर इसी बात का लगता है , मन कहीं दो तो नहीं है।  

फुटकर नोट्स 

मौलवी साहब

पहले घर की दालान से शिव मंदिर दिखता था आहिस्ता आहिस्ता साल दर साल रंग बिरंगे पत्थरों ने घेर लिया मेरी आँख और शिव मंदिर के बिच के फासले क...